{मणिपुर में हिंदी के इतिहास पर प्रकाश डालता यह लेख प्रो. देवराज ने ७ जून १९९८ में लिखा जब ‘मणिपुर हिंदी परिषद’ के स्थापना दिवस के अवसर पर ‘संकल्प और साधना’ नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। यह लेख हिंदी और वैष्णव धर्म के बारे में विस्तार से ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करता है। इस लेख के माध्यम से हम मणिपुर मे हो रही हिंदी की गतिविधियों की जानकारी भी प्राप्त कर सकते है। इस पुस्तक में उन कर्मठ हिंदी सेवियों के बारे में भी जानकारी मिलेगी जो भाषा और संस्कृति की सेवा में जुटे हुए हैं। देवराज जी मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल में डीन के पद पर रह चुके हैं। यहाँ उनके इस लेख का प्रथम भाग प्रस्तुत है।]
संकल्प और साधना - मणिपुर हिंदी परिषद
देवराज
१८वीं शताब्दी में वैष्णव-पदावली ["ब्रजबुलि-पदों" के नाम से] मणिपुर के मंदिरों में गाई जाने लगी थीं। इसे चैतन्य महाप्रभु के शिष्य वैष्णव धर्म के संदेश के साथ लेकर मनिपुर पहुँचे थे। इन भक्तों की चार विशेषताएँ थीं।
एक- राधा-कृष्ण की सरस व मोहक लीलाओं को संगीतमय बनाकर आकषक रूप में प्रस्तुत करना;
दो- बिना किसी विरोध को जन्म दिए स्थानीय जनता के मन में भक्ति व प्रेम की स्थापना करना;
तीन- मणिपुर के लौकिक वातावरण को स्वीकार करके भक्ति को पढ़े बे-पढ़े सबके लिए सुलभ बनाना और
चार- समूह गान की परम्परा। धीरे-धीरे वैष्णव-मत का प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा। गाँव-गाँव, घर-घर मंदिर बनाए जाने लगे और कीर्तन की ध्वनि गूँजने लगी। मणिपुर के राजा वैष्णव मत में दीक्षित हो गए। इससे राधा-कृष्ण और उनके माध्यम से भारत की वैष्णवी-सांस्कृतिक धारा इस राज्य में बहने लगी।
इस धार्मिक-सांस्कृतिक जागरण का विशेष पहलू है- तीर्थ यात्राओं की परम्परा। राधा और कृष्ण को अपना आराध्य मानने वाले लोग मथुरा-वृंदावन के उन क्षेत्रों के दर्शन करना अपना परम सौभाग्य मानते थे, जहाँ राधा-कृष्ण ने अपनी लीलाएँ सम्पन्न की थीं। जो साधना-सम्पन्न थे, वे कभी-कभी प्रतिवर्ष इस यात्रा में भाग लेते थे। इसके अतिरिक्त यथा-समय हरिद्वार, काशी, प्रयाग, गया, नवद्वीप आदि की यात्राओं का क्रम चलता रहता था। मणिपुर के राजाओं व सम्पन्न जनसाधारण द्वारा इनमें से कुछ तीर्थ स्थानों पर बनवाए गए मंदिरों व रासमंडलों को आज भी देखा जा सकता है। तीर्थ-यात्राओं का वह आयोजन मणिपुर निवासियों को भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृति और ब्रज भाषा तथा हिंदी की बोलियों के निकट सम्पर्क में लाता था। ये लोग जब अपने घरों को लौटते थे तब उन्हें हिंदी के इन रूपों का परिचय प्राप्त हो चुका होता था। साथ ही वे यह भी समझ चुके होते थे कि मणिपुर के बाहर मणिपुरी में काम चलाना कठिन है तथा इसके लिए व्यापक सम्पर्क की भाषा जानना आवश्यक है। यात्रा की सुविधा और सम्पर्क की सरलता के लिए ये धर्म-प्रधान मणिपुरी अनजाने ही हिंदी को अपनी निज की भाषा स्वीकार कर लेते थे। इस प्रकार पहले-पहल हिंदी ने मणिपुर में अपना स्थान बनाया।
भारतवर्ष पर मुसलमानों के आक्रमण के साथ ही प्रब्रजन एकाएक बढ़ना शुरू हुआ। मुसलमानों के लूट-पाट, राज्य स्थापना और शक्ति के बल पर इस्लाम के प्रचार को उद्देश्य बना कर भारत पर आक्रमण किए। ११वीं शताब्दी के काल में ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन का क्रम चल पड़ा था। इसके परिणाम सामने आए। कुछ लोग कत्ल कर दिए गए, कुछ ने प्राणों की रक्षा हेतु धर्म बदलना स्वीकार कर लिया और कुछ ने इधर-उधर भाग कर अपने धर्म की सुरक्षा का प्रयास किया। मणिपुर के विभिन्न क्षेत्रों में आज भी ऐसे ब्राह्मण परिवारों के वंशज हैं, जिनके पूर्वज अपना धर्म बचाने के लिए इधर चले आए थे। इनमें से काफी ब्राह्मण मिथिला के हैं। गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि से भी इस क्रम में अनेक ब्राह्मण आ गए थे। अन्याय से बचने के लिए ये ब्राह्मण अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की भाँति मणिपुर में यत्र-तत्र जहाँ भी अनुकूल परिवेश मिलता था, बस जाते थे। जैसे-जैसे समय बीतता जाता था, ये लोग अपने को स्थानीय परिस्थितियों में ढाल लेते थे। यहाँ की भाषा सीख लेते थे। आज तो मणिपुर के सभी ब्राह्मण शर्मा लिखते हैं किंतु यदि इनके गोत्र पूछे जाएँ तो इनके मूल निवास स्थान का पता लगाना कठिन नहीं है। प्राचीन काल में हिंदी के पक्ष में वातावरण बनाने में इन प्रब्रजित लोगों ने महत्वपूर्ण कार्य किया। इसका कारण यह है कि संस्कृत और हिंदी जानने वाले इन ब्राह्मणों ने अपने को मणिपुरी समाज के अनुकूल बनाकर अपना परम्परागत जीवन कर्म, पौरोहित्य प्रारम्भ कर दिया। ये धार्मिक कृत्य में बीच-बीच में हिंदी का प्रयोग करते थे। मंदिर में भोग चढ़ाने, धार्मिक-भोज और कीर्तन के अवसर पर पुरोहित प्रायः संस्कृत के शब्द भी बोलते थे। वैष्णव धर्म के श्रद्धालु-जन उचित रूप में इन्हें समझ लेते थे। इस प्रकार मणिपुर के जीवन में हिंदी का महत्व बढ़ता गया।
प्राचीन काल से ही अपने बल पर और राजाओं से छात्रवृत्ति प्राप्त करके मणिपुर के बाह्मण बालक संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करने नवद्वीप व काशी जैसे धार्मिक-सांस्कृतिक स्थानों में जाया करते थे। इनमें से काशी के, हिंदी के वातावरण से घिरे होने के कारण संस्कृत के साथ हिंदी का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर लेना इनके लिए बड़ा सहज था। इनमें से अनेक पौरोहित्य कर्म के साथ सक्रिय रूप से हिंदी के प्रचार में जुट जाते थे। कुछ आकर हिंदी का व्यवस्थित शिक्षण भी प्रारम्भ कर देते थे। इनके पूजा-पाट में भी संस्कृत और मणिपुरी के साथ हिंदी का पर्याप्त अंश होना स्वाभाविक था। मणिपुर में ब्राह्मणों के घर में मंदिर और उसके सामने बड़ा सा चौकोर बैठका बनवाने की प्राचीन परम्परा आज भी मिलती है। भगवान के दर्शन के बाद भक्त लोग इसमें इकट्ठे होते थे और एक निश्चित समय पर पुजारी इन्हें उपदेश करते थे। इस उपदेश की मुख्य भाषा मणिपुरी होती थी और बीच-बीच में प्रसंग पड़ने पर हिंदी का प्रयोग होता था। कीर्तन का माध्यम "ब्रजबुलि" की भाषा था ही, इससे हिंदी मणिपुर में बढ़ी। इस प्रकार प्राचीन काल में हिंदी, धर्म तथा संस्कृत भाषा के साथ इस क्षेत्र में आई।
10 टिप्पणियां:
साधु साधु
तथ्यपरक और सार्थक आलेख के लिए अभिनन्दन आपका
प्रोफेसर देव ने बिना कोई विद्वता झाड़े इतने सहज तरीखे से मणिपुर में हिन्दी प्रवेश का इतिहास प्रस्तुत किया है, कि तबियत अश अश कर उठा ! प्रस्तुतिकरण में तो आप लाज़वाब हैं ही ।
सार्थक आलेख आपका आभार और प्रो देवराज जी की लेखनी को नमन ...
इम्फ़ाल में रहा हूँ परंतु राज्य के इस पक्ष की जानकारी ही न थी। पढकर बहुत अच्छा लगा, धन्यवाद!
बहुत सुन्दर आलेख ! अच्छी जानकारी मिली !
अच्छी जानकारी के लिये
आभार !
ज्ञानपरक विश्लेषण।
मणिपुर में हिन्दी के बढ़ते प्रभाव पर यह लेख इतना अच्छा लगा कि इसका शेषांक भी प्रस्तुत करने की महती कृपा करें !
अनुसंधान परक आलेख..
कितना श्रम कर लेते हैं आप...
चंद्रमौलेश्वर जी के स्नेह के बल पर मुझे सुपठ मित्रों तक पहुँचने का अवसर मिला... हृदय से आभारी हूँ|विद्वान मित्रों के विचार भविष्य में अधिक काम करने की शक्ति देंगे|- देवराज
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