अपनी अपनी प्रकृति
डहडही बैरी मंजुडार सहकार की पै,
चहचही चुहल चहूँकित अलीन की।
लहलही लोनी लता लपटी तमालन पै,
कहकही तापै कोकिला की काकलीन की।
तहतही करि रसखानि के मिलन हेत,
बहबही बानि तजि मानस मलीन की।
महमही मंद-मंद मारुत मिलनि तैसी,
गहगही खिलनि गुलाब की कलीन की।
रसखान की इन पंक्तियों में प्रकृति का सुंदर वर्णन है। प्रकृति के इस वर्णन से बाग-बगीचे, फूल-गुंचे, पेड़-पौधे, रंग बिरंगी पक्षी-तितली आदि का चित्र मानसपटल पर दौड़ जाता है। प्रकृति के बीच मनुष्य एक नई ताज़गी, एक नई ऊर्जा महसूस करता है। इसीलिए लोग पर्यटन के लिए निकल पड़ते हैं, कुछ ‘वेकेशन’ के नाम से तो कुछ तीर्थ-यात्रा के नाम पर। जब भी कोई शहरी व्यक्ति इस कंक्रीट जंगल से बाहर निकल कर कोई दूर दराज़ गाँव की ओर निकल पड़ता है तो उसे वहाँ भी प्रकृति के दर्शन हो जाते हैं। खेत-खलिहान के बीच गाँव के लोग अपने अपने कार्य में व्यस्त हैं। महिलाएँ कमर झुकाए खेत में कोई गीत गाती हुई काम पर लगी हुई हैं। यह नज़ारा शहरी को एक प्राकृतिक दृश्य दिखाई देता है।
यह तो हुई गाँव की प्रकृति की बात। लोगों की प्रकृति और नैसर्गिक प्रकृति के बीच भी कभी छत्तीस का आंकड़ा होता है। तभी तो दुष्यंत जी ने खूब कहा था-
एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा
मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा
यों तो बेचारे कबूतर की प्रकृति उड़ने की होती है पर जब प्रकृति गुलेल लिये खड़ी हो तो उसे चेत जाना चाहिए था। बेचारा बालक कबूतर पट से गिर पड़ा! यही हाल कभी-कभी उन सैलानियों का होता है जो प्रकृति के कोप न भाँप पाने के कारण असुविधाओं को झेलते है।
प्रकृति को ढूँढ़ने के लिए लोग अपना देश छोड़ विदेशों में भी सैर के लिए निकल पड़ते हैं। मुझे तो आज तक यह समझ में नहीं आया कि प्रकृति को ढूँढ़ते हुए पर्यटक देश-विदेश की सैर के लिए क्यों निकल पड़ते हैं! प्राकृतिक दृश्य तो कहीं भी मिल ही जाते हैं, शायद अपने घर के पिछवाडे भी। पर नहीं, प्रकृति की तलाश में जब तक कुछ मशक्कत न की जाय तब तक उसका आनंद नहीं आता; ठीक उसी तरह जिस तरह मुहल्ले के मंदिर में जाने से उतना पुण्य नहीं मिलता जितना केदारनाथ, बद्रीनाथ के मंदिरों में माथा टेकने से।
इसका अर्थ यही हुआ कि प्रकृति भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। इसमें दो राय हो सकते है कि प्रकृति भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं, परंतु यदि ऐसा नहीं होता और आदमी की प्रकृति एक ही प्रकार की होती तो दुनिया कितनी फीकी होती। ‘द वर्ल्ड वुड डाई ऑफ़ मोनोटनी’। न कोई प्रेम न बैर, न कोई झगडा न रगड़ा, कितना ‘मोनोटोनस’ होता जीवन। तभी तो ईश्वर ने मनुष्य को अलग अलग प्रकृति दी है कि हम दुनिया में आकर बोर न हो जाएँ। प्रकृति भी अपने नये-नये रूप दिखाती रहती है।
मनुष्य की इस प्रकृति के कारण ही तो मातहत अफ़सर से डरता है, संत्री मंत्री से डरता है और कार्यकर्ता नेता से। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रकृति और डर एक दूसरे के पुरक हैं।
डर प्रकृति का अभिन्न अंग है। आप नहीं मानते तो ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’! यह डर ही है कि मालिक के गुस्सैल प्रकृति के कारण नौकर चौकन्ना रहता है; डर के कारण मंत्री संत्री को दूर रखता है कि वह सब गुर सीख कर खुद मंत्री की कुर्सी पर न बैठ जाए; डर है कि कार्यकर्ता अच्छा वक्ता बन कर नेता न बन जाय और नेता को अपनी दुकान बंद करना पडे। इस डर का कारण है मनुष्य की प्रकृति, जो उसे बेल की तरह पेड से ऊँचा हो जाने की प्रेरणा देती है। यही डर भक्त को भगवान की ओर ले जाता है। यदि स्वर्ग-नरक का डर नहीं रहा तो मनुष्य पूछने लगे - ‘कौन भगवान’, और इंद्र का सिंहासन डोल जाय।
प्रकृति को भी डर है! उसे डर है कि मनुष्य उसको विकृत करता जा रहा है और यदि ऐसा ही चलता रहा तो उसका वजूद ही मिट जाएगा। इसलिए वह समय-समय पर चेतावनी देती रहती है... कभी सुनामी के बहाने तो कभी लावा उगल कर। इन चेतावनियों के बावजूद मनुष्य नहीं समझ पा रहा है कि प्रकृति को नष्ट करने में वह भी धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है। परंतु लालच मनुष्य की प्रकृति है और इसके चलते वह इस डर को कालीन के नीचे छुपाता जा रहा है।
अब यह अपनी-अपनी प्रकृति पर निर्भर है कि हम प्रकृति के कितने पास या दूर रहते हैं।
आप ने सही कहा कि सब एक दूसरे से डरते है, सब के सब।
जवाब देंहटाएंजिस डाल पर बैठा है उसे ही काट रहा है आज इंसान ।
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट ।
बूढ़ों के प्रति चिंता देखें
http://pyarimaan.blogspot.com
अपनी अपनी प्रकृति है, अपना अपना चाव।
जवाब देंहटाएंप्रकृति ही सर्वश्रेष्ठ है.
जवाब देंहटाएंदुनाली पर देखें
बाप की अदालत में सचिन तेंदुलकर
प्रसाद जी , प्रकृति की छवि तो पल पल बदलती है और अनेक रंग लिए हुए है । इसलिए उसकी कोई सीमा ही नहीं है आनंद लेने के लिए । लेकिन मनुष्य ने ही उसकी छवि को धूमिल कर दिया है जिसका हर्जाना सभी को भुगतना पड़ता है ।
जवाब देंहटाएंअच्छा सन्देश देती हुई पोस्ट ।
प्रकृति के प्रति मनुष्य की संवेदनहीनता वास्तव में ही भयावह है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंप्रकृति का वजूद मिट गया तो
मनुष्य का वजूद भी मिट जायेगा !
अहाहा,
जवाब देंहटाएंकिम आनन्दम !
रसखान की भली याद दिलायी,
और इसे खींच कर दुष्यँत कुमार ले आये ।
मेरी दृष्टि में यह एक उत्कृष्ट ललित आलेख है ।
यदि आशा एक्सीलेटर है तो बहकते विचारों पर भय एक ब्रेक का कार्य करती है ।
कबूतर,चिट्ठी,उड़ान,मौसम,गुलेल और पट से नीचे आन गिरना ऐसे प्रतीक हैं जिनमें अनेक ध्वनियाँ और व्यंजनाएँ भरी हो सकती हैं - आपने उनसे अपनी अभीष्ट अभिधा की सिद्धि कर ली! धन्य धन्य. अब देखिए न दुष्यंत कुमार त्यागी को पर्यावरण की इतनी चिंता है कि तालाब का पानी तक बदलने पर उतारू हैं -
जवाब देंहटाएं''अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं'' [साए में धूप]
!!!!!
प्रकॄति की प्रकॄति समझ लें तो अपनी प्रकॄति भी दूषित होने से बच जाती है .......
जवाब देंहटाएंमनुष्य की प्रकृति और प्रकृति की प्रकृति .. कौन किसकी प्रकृति को प्रभावित कर रहा है ... कौन किसको चेतावनी दे रहा है ... ये तो प्रकृति के प्रकोप प्रगट कर देते हैं ... अच्छी पोस्ट है ...
जवाब देंहटाएंआज हम ...कल को काल बनाने पर तुले हुए है !
जवाब देंहटाएंVERY NATURAL POST ON NATURE.....
जवाब देंहटाएंAUR RAS-KHAN.....TO HAIN RAS-KHAN....
PRANAM.
वाकई प्रकृति को मानव से खतरा है ...मगर चोटिल प्रकृति मानव के लिए तबाह कर सकती है ! ! शुभकामनायें आपको !
जवाब देंहटाएंइन चेतावनियों के बावजूद मनुष्य नहीं समझ पा रहा है कि प्रकृति को नष्ट करने में वह भी धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है। परंतु लालच मनुष्य की प्रकृति है और इसके चलते वह इस डर को कालीन के नीचे छुपाता जा रहा है।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही ।
वाह..बहुत बढिया
जवाब देंहटाएंडर के सन्दर्भ में आपने प्रकृति को भली-भांति समझाया है. हम मनुष्य अपनी लिप्सा छोड़े तब न. अच्छी पोस्ट .धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपकी और प्रकृति दोनों की प्रकृति यहाँ इकसार हो गयी लगती है -आनंददायक निबंध !
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