चित्र :बूटपालिश [२००७] से साभार
बूटपालिश वाला
रेल व्यवस्था मुम्बई शहर की जीवनरेखा कही जाती है। हर अपरिचित व्यक्ति इस व्यवस्था को देखकर आश्चर्यचकित रह जाता है। इतनी तेज़ी से आती जाती रेलगाडियों के बावजूद स्टेशनों पर भीड़ जस की तस नज़र आती है। ऐसे में किसी ट्रेन में विंडो सीट मिलना एक प्रतियोगिता जीतने जैसा होता है। एक दिन मैंने भी यह प्रतियोगिता जीती और बैठ गया ट्रेन की विंडो सीट से बाहर का नज़ारा झांकने।
रेलवे ट्रैक के समीप बने स्लम की लगातार कतार देख कर लगा कि मुम्बई दो छोरों का शहर है जहाँ ऊँची अट्टालिकाओं के साथ ये झोपड़पट्टियां भी है। सम्पन्न लोग उन अट्टालिकाओं में रहते हैं तो गरीब इन झोपड़ियों में रहकर उनकी सेवा करते हैं! शायद यह आज के हर बड़े शहर की विडम्बना है।
मुम्बई की ट्रेन में बैठे नज़ारे देखने का एक अलग ही अनुभव होता है। गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी नहीं कि ‘आक्रमण’ के नाद के साथ लोग ट्रेन में घुसने लगते हैं। यह महाभारत सीरियल की प्रेरणा का असर है। यह आक्रमण दोतरफ़ा होता है। ट्रेन में घुसने वाले लोगों को भीतर की ओर ठेलते रहते हैं तो भीतर से उतरने वाले बाहर की ओर ज़ोर लगाते रहते हैं। इस ठेलम्ठेल में कुछ उतरने वाले नहीं उतर पाते और कुछ चढ़नेवाले छूट जाते हैं। जो उतर नहीं पाया वह अगले स्टेशन के लिए तैयार रहता है तो जो नहीं चढ़ पाया वह अगले ट्रेन की प्रतीक्षा में।
वैसे तो दूसरी ट्रेन कुछ ही मिनट में आ जाएगी। इन चंद घडियों में फिर भीड जस की तस हो जाती है। अभी जो स्टेशन खाली दिख रहा था कुछ ही मिनिट में फिर भर जाता है। फिर वही ‘आक्रमण’ और वही ठेलम्ठेल का सिलसिला...।
मुम्बई के रेलवे स्टेशन पर दो खास तरह के व्यवसाई दिखाई देते हैं। ये व्यवसाई अपने हुनर में बडे तेज़ होते हैं। एक हैं- तेल-मालिश चम्पी करने वाले और दूसरे हैं बूट पालिश वाले। बूट पालिश का ज़िम्मा छोटी आयु के बच्चे निभाते हैं। मैं अपनी विंडो सीट से बैठा-बैठा एक ऐसे ही बच्चे को देख रहा था। ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी थी केवल दो मिनट के लिए पर इतने अल्प समय की झलक ने ही मेरे मानस पटल पर एक अमिट छाप छोड़ दी।
प्लेटफ़ार्म के एक कोने में लकडी के छोटे से डिब्बे को स्टूल बना कर एक बारह-तेरह वर्ष का बालक बैठा था। उसके सामने एक और डिब्बा रखा था जिसपर एक व्यक्ति अपना पैर रखे हुए था। वह बालक बड़े मनोयोग से एक छोटी-सी डिब्बी से पालिश निकाल कर बडी नज़ाकत से जूते पर मल रहा था। पालिश अच्छी तरह जूते पर फैला देने के बाद वह अपने कंधे पर रखे कपडे को पट्टी की तरह मोड़ कर उस जूते पर रगड़ने लगा। लो, जूता चमचमाने लगा। फिर, जूते के चारों ओर एक ब्रश को बड़ी सलाहियत से घुमाने लगा। काम समाप्त हुआ तो जूते को हल्के से ठोका। ग्राहक समझ गया कि उसके एक जूते का काम हो गया है। उसने दूसरा पाँव उस स्टूल पर रख दिया। फिर उसी तन्मयता से वह बालक पालिश लगाने लगा। अब ट्रेन खिसक चली थी।
जब तक निगाह जाती, मैं उसी नज़ारे को देखता रहा। वह बालक- जिसके कंधे पर शायद परिवार की ज़िम्मेदारी थी, जिसके कंधे पर मैंने वह कपड़ा देखा जो उसकी रोज़ी-रोटी का अभिन्न अंग था, उसी कंधे पर वह अचकन थी जो जगह जगह पालिश के रंग बिखेर रही थी, वह अचकन जिसकी उम्र तमाम हो चुकी थी पर उस बालक के युवा कंधों को ढाँपे थी और वह युवा हो रहे कंधे परिवार का बोझ उठाने शायद अभी परिपक्व नहीं हुए थे!!!!!!!
13 टिप्पणियां:
Apna-apna Bhagy !
बहुत सुंदर सार्थक आलेख बेहतरीन प्रस्तुति,
welcome to new post --काव्यान्जलि--हमको भी तडपाओगे....
चंद्र मौलेश्वर जी । मुंबई के स्टेशन पर आपने जिन बाल कंधों पर उनकी खुद की , उनके परिवार की और जाने कौन कौन सी जिम्मेदारी और मजबूरी का भार उठाए बच्चों को देखा आज कमोबेश देश के हर शहर में ये दिख जाते हैं ।कहीं बूट पालिश का ब्रश लिए तो कहीं रेडलाईट पर छोटे छोटे सामान बेचते । इस देश में अभी दुरूस्त करने के लिए बहुत काम पडा है ।
ऐसे दृश्य हमारी तरक्की के दावों की पोल खोलते हैं.....
marmik prastuti.
शायद यह आज के हर बड़े शहर की विडम्बना है।
बहुत अच्छी पोस्ट ..
शाइनिग इण्डिया के इस तस्वीर को देखकर तो पूछना पड़ता है कि कहाँ गया बाल श्रम कानून..?
हालाँकि बाल श्रम गैर कानूनी है लेकिन बूट पोलिश करके ये बच्चे जो धन कमाते हैं , वह भीख मांगने से तो बेहतर है .
आखिर यह उनकी मेहनत की कमाई है .
मुंबई की लोकल यहाँ की लाइफलाइन कही जाती है...उसका अनवरत चलते रहना ही मुंबई की धड़कन को बनाये रखता है..
औरों के जूते सुन्दर ढंग से चमकाने वालों की भी किस्मत चमके..
मर्म पर चोट करता आलेख सोचने पर विवश करता है | बहुत सुन्दर |
nice post
ब्लॉगर्स मीट वीकली (29)सबसे पहले मेरे सारे ब्लोगर साथियों को प्रेरणा
अर्गल का प्रणाम और सलाम/आप सभी का ब्लोगर्स मीट वीकली (२९)में स्वागत है
/आप आइये और अपने संदेशों द्वारा हमें अनुग्रहित कीजिये /आप का आशीर्वाद
इस मंच को हमेशा मिलता रहे यही कामना है...
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