लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना
‘मनुष्य सपना देखता है कि आनेवाले कल की ज़िंदगी अधिक स्वेच्छा और सुख से भरी होगी। मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त। उम्र के उसी पड़ाव ने भगत सिंह, चेग्वेरा, नक्सलबाड़ी, श्रीकाकुलम और आज की क्रांति को भी जन्म दिया है। अगर वे सपने न होते तो समाज में प्रगति नहीं हुई होती। इसलिए पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश कहते हैं कि सपनों का मर जाना ही खतरनाक होता है।" यह कथन वरवर राव का है जिन्होंने सत्यनारायण पटेल के कहानीं संग्रह ‘लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना’ के बारे में लिखा है।
‘लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना’ में चार कहानियाँ है जिनमें जीवन के आरम्भ से लेकर अंत तक की भावनाओं, घटनाओं और जीवन मूल्यों को समेटा गया है। इन कहानियों के शीर्षक हैं- सपनों के ठूँठ पर कोंपल, नकारो, गम्मत और लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना।
‘सपनों के ठूँठ पर कोंपल’ एक ऐसे व्यक्ति- सतीश की कहानी है जिसने अपने कालेज के समय से ही गरीबों की सेवा में अपना मन लगा दिया था। कालेज की एक लड़की से उसका प्रेम चल रहा था पर समाज और जाति की ऊँच-नीच की दीवार ने इस प्रेम को असफल कर दिया। पिता चाहते थे कि वह उनके तेल का धंधा सम्भालें, पर सतीश के मन में व्यापार तो गरीबों का शोषण था। पिता का मानना था कि दुनिया और समाज को बदलने के नाम पर आजकल ढोंग रचा जा रहा है। वे पूछते हैं-‘गांधी कौन-सी कंपनी की कार में बैठ कर क्रांति करने निकला था! भगत सिंह किस कंपनी का पानी पीता था और किस संस्था से फ़ंड लेकर इन्किलाब का नारा बुलंद कर रहा था! इन्हें कुछ बदलना-वदलना नहीं है, ये तुम जैसे लोगों की भीड़ के कान्धों पर चढ़ अपनी भूख मिटाते हैं।’ असफल प्रेम के बाद सतीश यह निश्चय कर चुका था कि वह इन गरीबों की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर देगा। उसने घर से अलग होकर एक झोंपडी में ठिकाना कर लिया। यहाँ उसे समाज सेवी और एन जी ओ जैसी संस्थाओं के दोग़ले चरित्र को करीब से देखने का मौका मिला। उसके सब से करीबी दोस्त-अशोक के चरित्र का भी पता चल गया जो गरीबों की सेवा की बात तो करता था पर अपने परिवार के लिए धन बटोरता था। उसने देखा कि अशोक भी नेता और उसके चमचों की हां में हां मिलाकर अपना लक्ष्य साध रहा था। फिर भी, वह गरीबों की सेवा में प्रयासरत था। सतीश की दोस्ती एक कफ़न बेचने वाले से थी जिसे उसने साहित्य की पुस्तके दे देकर उसकी साहित्य में रुचि बढाई थी। अंत में जीवन से हार कर जब सतीश आत्महत्या करने का प्रयास करता है पर असफल रहता है तो कफ़न बेचने वाला उसका साथी-पवन आता है और बताता है कि वह अपना ऋण उतारना चाहता है। कैसा ऋण? वह पुस्तकें जो उसने दी थी उन्हें संजोकर और अपनी कमाई का कुछ अंश और पुस्तके खरीद कर उसने अपने कफ़न की दुकान के पिछले हिस्से में एक पुस्तकालय खोल रखा है। वह चाहता था कि सतीश एक बार वहाँ आए और देखें कि उसका लगाया कोंपल कैसे फल-फूल रहा है। सतीश पवन की दुकान पर जाता है और देखता है कि पंद्रह-सोलह साल के सात-आठ बच्चे वहाँ बैठे पुस्तकें पढ़ रहे हैं। उन्हें देख सतीश की आँखों में छोटे-छोटे असंख्य जुगनू झिलमिलाते हैं। वह भीगी आँखों से पवन की ओर देखते हुए कहता है- ‘ मैं तुम्हें सलाम करता हूँ दोस्त’ और फफक कर रोने लगता है। वह संकल्प लेता है कि अपने सहयोग से इन जुगनुओं की चमक बढ़ाएगा। उसके चेहरे के भाव से यूँ लगता है मानो चेहरे पर भाव नहीं- सपनों के ठूँठ पर फूटती कोंपलें हैं।
कहानी रोचक बन पड़ी है जो एक लघु उपन्यास की तरह लम्बी हो गई है। कहानी का मुख्य उद्देश्य आज की राजनीतिक व्यवस्था में खुदगर्जी की घुसपैठ पर प्रकाश डालना था परंतु लम्बी होने के कारण पाठक का ध्यान सतीश के जीवनी के इर्दगिर्द ही घूम कर रह जाता है। निस्संदेह लेखक ने साम्यवादी विचारधारा और उसमें आ रहे भटकाव पर संदेश देने का अच्छा प्रयास किया है।
दूसरी कहानी ‘नकारो’ सास-बहू के नोक-झोंक और वर्चस्व की रोचक कहानी है जिसमें एक व्यंग्य के माध्यम से कहा गया है कि घर में सास अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। किसी को नकारने का हक भी सास अपने पास ही रखना चाहती है। सास की गैरमौजूदगी में पडोसन छाछ मांगने आती है तो बहू यह कह कर नकार देती है कि उनके पास भी छाछ नहीं है। इतने में सास आ जाती है और बहू की बात सुनकर कहती है-‘सास के जीते-जी नकारा [इंकार] करने लगी।’ फिर सास-बहू में शब्दों के जो बाण चलते हैं तो लोग जमा हो जाते हैं और अंत में सास को जब वास्तविकता में पता चलता है तो वह शर्मिंदा होकर कह देती है-‘वह छाछ तो सही में खुटी गई।’
इस कहानी में ग्रामीण जीवन की अच्छी झलक मिलती है जिसमें गाँव के सभी लोग एक दूसरे के सुख-दुख और ‘तमाशे’ में भी शरीक रहते हैं।
तीसरी कहानी ‘गम्मत’ में कहानीकार ने राजनीतिक कटाक्ष किया है। वैसे तो गम्मत एक देशज शब्द है जिसका अर्थ हँसी, दिल्लगी, मौज-मज़ा, विनोद होता है। [इस शब्द का अर्थ शब्दकोश में तो नहीं मिला पर गूगल से मिला है!] कहानी सी एम जी के काफ़िले के साथ सहायक उपनिरीक्षक, जीप का ड्राइवर और फोटोग्राफ़र बंसी के सफ़र से शुरू होती है। गाडी की रफ़्तार के साथ बंसी अतीत में खो जाता है। उसे अपने गांव में हो रहे नाटक-नौटंकी में सीता-हरण की याद आती है और वह सोचने लगता है- रावण की जगह अपन जैसा कोई होता तो हवा में ही खेल कर लेता...। उसे याद आता है बचपन का वह किस्सा जब उन्हें रास्ते में एक ‘फुग्गा’ मिला और जिसे देख कर वह सोचने लगा था- इतने बढिया फुग्गे में किस गधे ने नाक छिरक दी।
सी एम जी के मंच पर चंद्रशेखर आज़ाद की जन्मभूमि भाबरा से आया एक युवक उस वेश में आकर उन्हें हार पहनाता है। इस गम्मत का वर्णन लेखक ने इस प्रकार किया- ‘नकली चंद्रशेखर आज़ाद का लोगों ने सच्चीमुच्ची का स्वागत किया। नकली चंद्रशेखर आज़ाद ने असली में पूरा ‘वंदे मातरम’ गीत गाया। गीत समाप्त कर नकली चंद्रशेखर आज़ाद जब असली सी एम जी के चरणों में झुका, सी एम जी ने उसे गले लगा कर उसका असली नाम पूछा। बंसी अपने कैमरे की स्क्रीन पर क्लोज़प लिया। बंसी भीतर ही भीतर खुद से संवाद करने लगा- क्या आज असली चंद्रशेखर आज़ाद होता, तो वह सी एम जी के चरणों में सिर झुकाता? -नहीं वह ऐसा हरगिज़ नहीं करता। फिर? शायद यह गम्मत देख उसका खून खौल जाता।’
इस कहानी में लेखक ने कुछ कविताओं का भी प्रयोग किया है। देश की स्थिति पर वे कहते हैं- आज़ाद देश का/ मुर्गा तक बंधक/ कैसी गम्मत। यद्यपि बहुत पैना व्यंग्य किया है सत्यनारायण पटेल ने, परंतु देशज शब्दों की अधिकता सामान्य पाठक को खल सकती है।
पुस्तक की अंतिम शीर्षक कहानी है- लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना, जिसमें एक किसान की व्यथा-कथा कही गई है। डूंगा एक ऐसा किसान है जिसे अपनी धरती से प्रेम है और वह इसे किसी भी कीमत पर नहीं बेचना चाहता। वह दिन-रात मेहनत करता है, फिर भी वह अपनी पत्नी के लिए लाल छींटे वाली लूगड़ी के लिए पैसे नहीं जोड़ पाता। उसका यह सपना साल-दर-साल अधूरा ही रहता है। आधुनिक जीवन की आँधी उनके गाँव में भी पहुँच जाती है। जवान होती बेटी टीवी में दिखाए गए सपनों में खो जाती है। उसका साला भी अपनी ज़मीन बेच कर अब गाँव के चौपाल में जुआ खेल कर समय बिताता है। डूंगा को यह सब नहीं भाता। गांव में दलालों के टुल्लर उसके घर के इर्दगिर्द चक्कर लगाते है और चाहते हैं कि वह अपना खेत बेच दें। उसे साला भी लालच देता है कि क्यों न ज़मीन बेच कर ऐश करे और बेटी की शादी धूमधाम से करें। परंतु डूंगा ज़मीन बेचने को माँ को बेचने के बराबर समझता है और अंत तक अपने इस निश्चय पर कायम रहता है कि वह अपनी मेहनत के पैसे से ही पत्नी और पुत्री के लिए लाल छींट वाली लूगड़ी खरीदेगा। कहानी आशावादी नोट पर समाप्त होती है। यह आशावादी सोच भी लेखक की उसी सोच का ही प्रतिफल लगता है।
सत्यनारायण पटेल एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने अपनी विचारधारा को सफलतापूर्वक अपनी कहानियों में उतारा है। उन्हें कथा-कहन की भाषा पर अधिकार भी है। परंतु सारी पुस्तक में उन्होंने कई जगह ऐसे देशज शब्दों का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ भी बताना उन्हें आवश्यक लगा है ताकि पाठक को कहानी समझने में सुविधा हो। वे एक सफल साहित्यकार ही नहीं एक अच्छे फोटोग्राफर, फ़िल्म और डॉक्यूमेंटरी निर्माता और रंगकर्मी भी हैं। उन्होंने अपनी विचारधारा को इन कहानियों के माध्यम से पहुँचाने का सफल प्रयास किया है जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।
पुस्तक विवरण
पुस्तक का नाम लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना
कहानीकार: सत्यनारायण पटेल
मूल्य: ११० रुपए
प्रकाशक: सी-५६/यूजीएफ़-४, शालीमार गार्डन
एक्स्टेंशन -२, गाज़ियाबाद-२०१ ००५[उ.प्र]
इतनी अच्छी समीक्षा ..पढ़ते-पढ़ते मानो पूरी किताब ही पढ़ ली.
जवाब देंहटाएंचार क्षेत्रों में एक विचार को समुचित संचारित किया है। सुन्दर समीक्षा।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको भाई जी
एक अच्छी किताब और वैसी ही समीक्षा -मन प्रसन्न हो गया !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया समीक्षा
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा की है आपने ...
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है.
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
चर्चामंच-645,चर्चाकार- दिलबाग विर्क
बेहतरीन समीक्षा....
जवाब देंहटाएंसमीक्षा पढने से किताब पढने की इच्छा है। जल्दी ही पढूंगा
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
nice review..
जवाब देंहटाएंसपने मनुष्य को डराते और आशा भी जगाते हैं. उज्जवल भविष्य की तस्वीरें दिखाते हैं.
जवाब देंहटाएंसकारात्मक सोच देते हैं.
अच्छी समीक्षा है. पढ़कर अच्छा लगा.