साहित्य में भ्रष्टाचार
यह बात वर्षों से सुनते आए हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है पर अब जाकर यह समझ पाए कि सचमुच साहित्य समाज का आईना ही तो है। एक समय था जब साहित्य को सब के हित के लिए रचा गया लेखन समझा जाता था। अब तो समय के साथ साहित्य भी बदल रहा है। साहित्य के नाम पर राजनीति भी की जाती है, भ्रष्टाचार भी पनप रहा है और भाई-भतीजावाद भी।
साहित्यकारों में जो आपसी मनमुटाव है, वो यदाकदा उनके लेखन में छलक जाता है और रही सही कसर उनके पासपडोस के साहित्यकार इन मुद्दों को उछाल कर पूरी कर देते हैं। ऐसे कई प्रकरण पढ़ने को मिलते हैं जिनमें वरिष्ठ साहित्यकार एक दूसरे पर ताने कसते या लेखन में ही दो-दो हाथ आज़माते मिल जाते हैं। इन प्रकरणों में कहीं अपने वाद के कारण तो कहीं निजी विचारों की भिन्नता के कारण कीचड़ उछालते हुए साहित्यकार दिखाई देते हैं। जब ऐसा मतभेद लेखनी में उतरता हैं तो भ्रष्ट मानसिकता को जन्म देता है।
यही रचनाकार जब अपनी-अपनी विचारधारा के चलते अपनी संस्थाएं बना लेते हैं तो गुटबाज़ी का आरम्भ हो जाता है। अंततः इसी गुटबाज़ी से पनपता है भ्रष्टाचार का ऐसा लॉलीपॉप जिसे बताकर अपने गुट को संघटित रखने का प्रयास किया जाता है। इस लॉलिपॉप के कई रूप होते हैं। कहीं उच्च शिक्षा में वरीयता- पी.एच डी. आदि की उपाधियाँ, कहीं पुरस्कार की रेवडियां और कहीं उच्च पदों की बंदरबाँट।
जब कोई लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार राजनीति से जुड़ जाता है तो सोने पर सुहागा ही कहलाएगा। उसके हाथ में साहित्य, सरकारी पुरस्कार और वित्तीय सहायता जैसे चाबुक होते हैं। वह अपने चेले-चपाटों को ये रेवड़ियाँ बाँटता है और दूसरों को ठेंगा बताता है और वे मुँह ताकते रह जाते हैं। इस प्रकार के भ्रष्टाचार को कोई इसलिए नहीं रोक पाता कि इन पुरस्कारों के लिए ऐसे नियम बनाए जाते हैं कि वही चेला उन नियमों में खरा उतरता है जिसे पुरस्कृत करना है। दूसरा कोई हिम्मत करके चुनौती भी दे तो यही कहा जाएगा कि निर्णायकों का निर्णय अंतिम है!!
यह तो हुई पुरस्कारों की रेवडियों की बात। अब वित्तीय सहायता को देखें। ऐसी कई सरकारी संस्थाएँ है जो भाषा के उत्थान के लिए वित्तीय सहायता देती हैं। इस वित्तीय सहायता के हकदार भी वही होते हैं जो उस संस्था के अध्यक्ष की हाँ में हाँ मिलाने वाले होते हैं। दूसरा रचनाकार, चाहे कितना भी प्रतिभाशाली क्यों न हो, वह उस संस्था के द्वार तक भी नहीं पहुँच सकता। उसे तो अपनी प्रतिभा घर फूँक कर जतानी पड़ती है। इसीलिए हम देखते हैं कि जो साहित्य के नाम पर वित्तीय सहायता से छपता है, उसके पाठक प्रायः ही होते हैं।
सरकारी वित्तीय सहायता पत्र-पत्रिकाओं को भी दी जाती है; परंतु सरकारी विज्ञापनों के रूप में मिलने वाली यह सहायता केवल उन्हें मिलती है जो या तो सरकार का स्तुतिगान करते हैं या सरकारी अधिकारियों की हथेलियाँ गरम करते हैं। तब जाकर ही उन्हें अपने पत्र-पत्रिका के लिए सरकारी विज्ञापन मिलते हैं। जो निर्भीक पत्रिका चलाना चाहते हैं, उनके लिए एक ही रास्ता है कि अपनी जुगाड़ करें या अपना खीसा ढीला करे। ऐसी कई लघुपत्रिकाएं हैं जो निर्भीक पत्रकारिता चलाती तो हैं पर कुछ ही दिन में दम तोड़ देती हैं।
साहित्य के इस अदृश्य भ्रष्टाचार को कोई अण्णा हज़ारे नहीं मिटा सकता क्योंकि यह आम जनता को प्रभावित नहीं करता और आज का साहित्यकार भी आम जनता से अपने को जोड़ नहीं पाया। इसका सटीक प्रमाण है अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान में साहित्यकारों को साँप-सूंघता-मौन!
21 टिप्पणियां:
एक कटु सत्य को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत किया है आपने....
सच में इस तरह की खेमेबाजी, गुटबाजी किसी भी साहित्य की समर्द्धि के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकते हैं..
गहन चिंतन-मननशील प्रस्तुति के लिए आभार..
गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें
आपने बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है। वर्तमान में दो प्रकार के साहित्यकार हैं, एक वे जो हिन्दी शिक्षण से जुड़े हैं और दूसरे वे जो विभिन्न विधाओं में शिक्षित हैं लेकिन हिन्दी साहित्य की रचना कर रहे हैं। जब हिन्दी शिक्षण नहीं था तब एक ही प्रकार का साहित्यकार होता था, अर्थात जो भी व्यक्ति लिखता था वह साहित्यकार। उससे यह नहीं पूछा जाता था कि तुम्हारे पास डिग्री क्या है?
आज जो हिन्दी शिक्षण से जुड़े लोग आलोचक बन गए हैं और ये आलोचक ही तय करते हैं कि कौन साहित्यकार और कौन नहीं। बस यही से गुटबाजी प्रारम्भ होती है। अर्थात साहित्य का विद्यार्थी या शिक्षक यह तय करता है कि साहित्यकार कौन है? ये लोग ही तय करते हैं कि किसे पुरस्कार मिलना चाहिए और किसे नहीं।
दूसरा पहलू आपने लिखा है कि लोग अपनों को रेवड़ियां बांटते हैं। असल में साहित्य में इतनी रेवडिया हैं और मांगने वाले भी ढेर हैं तो मांगने वालों की पहुंच बांटने वाले तक होती है। इन पदों पर बैठे लोगों से ये सम्बंध बनाकर रखते हैं और लाभ पाते हैं। क्योंकि उसे भी तो कार्यक्रम देने हैं।
मेरा अनुभव यह है कि आज प्रत्येक लेखक केवल पुरस्कार के लिए लिख रहा है। एक किताब लिखी नहीं कि पुरस्कार की दौड़ में निकल जाता है। इसलिए उसे कहाँ समाज और देश की चिन्ता का समय है? बहुत सारे प्रश्न है इस जगत में, लेकिन उत्तर कहीं नहीं है। लेकिन आपने सटीक विश्लेषण किया है।
क्या करे , दुर्भाग्यवश ऐसा ही है सर जी, और सिर्फ साहित्यिक-मौद्रिक-पुरुष्कार भ्रष्टाचार ही नहीं अपितु हर क्षेत्र में! जो इनकी जयजयकार करे, उसके लिए ही धनकुबेर और मान-सम्मान के दरवाजे खुले है ! अब देखिये न जब तक बाबा रामदेव कौंग्रेस के लिए ख़तरा नहीं था, तब तक कुछ भी कर लो सब माफ़ ( थोडा बहुत इनको देकर) और अब हमारा इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट क्या चुस्त नजर आ रहा है, हसन अली को भी मात दे दी ! बस यही कहूंगा इन गंदी राजनीति करने वालों का सत्यानाश हो !
बहुत सही फ़रमाया है ।
साहित्यकार भी इसी समाज का हिस्सा हैं । असर तो पड़ेगा ही । महज साहित्यकार होने से भ्रष्टाचार से इम्युनिटी नहीं मिल जाती । आखिर चरित्र ही काम आता है ।
मैँ भी बहुत दिनोँ से इस मुद्दे पर विचार कर रहा था । आपने कई कटु सत्य सामने रखा ,आभार आपका ।
सांस्कृतिक गिरावट का दौर है....क्या कहूं...
बहुत संवेदनशील चिंतन है...इस सार्थक लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।
चिन्तन योग्य आलेख....
दिया तुम जलाओ हंडा हम जलाएं
मिलकर दुनिया को हम जगमगाएं
सच है यही हाल ....बेहद विकट स्थिति है..
जब तक साहित्य को भ्रष्टाचार की पीड़ा से भी नहीं जोड़ा जायेगा, समाज का रूप पूर्णतया सामने नहीं आयेगा।
साहित्यकारों की यह शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति उन्हें देश समाज के हाशिये पर ला दे रही है .....वे अप्रासंगिक हो चुके हैं !
मानसिक रूप से व्याधिग्रस्त व्यक्ति ही गुटबाजी में लिप्त होता है अन्यथा -"चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग"
साहित्य जुगाली करने में मगन है . देखते जाईये कितना कुछ निकलता है.
बिलकुल सही कहा है सार्थक पोस्ट
सहमत हूँ आपसे !
आभार बढ़िया प्रस्तुती के लिये !
'ज़ेन' साधना पद्धति में ध्यान करने की पद्धति है कि प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाकर लक्ष्य को इस तरह भेदना कि अपने-आप ही तीर लक्ष्य को भेदे. चाहकर या अभ्यास से नहीं. जिस तरह इस बात को 'ओशो' सरल भाषा में समझा सकते हैं. उसी तरह आपने 'साहित्य में भ्रष्टाचार' विषय पर सरल भाषा में अपनी कलम चलाई है.
क्षमा करें मैं आपकी तुलना 'ओशो' से नहीं कर रहा हूँ. आपकी सरल भाषा, सरल शब्दावली पर कहने की इच्छा हुई तो ओशो याद आए.
आपके द्वारा प्रत्यंचा पर रखे गए 'तीर' लक्ष्य को अवश्य भेदेंगे. अपने आप. और,यही साहित्य साधना की पद्धति भी है.
जहाँ साधारण (प्रतिभावान) लेखक अर्थात बिना किसी 'भाई' वाला, माई बाप वाला लेखक, अपनी उपेक्षा का शिकार होता है तो उसकी पीर को देख कोई तो सहृदयी अपनी कलम उठा लेता है परशुराम की परशु की तरह.
अगली किश्तों की प्रतीक्षा रहेगी......
'ज़ेन' साधना पद्धति में ध्यान करने की पद्धति है कि प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाकर लक्ष्य को इस तरह भेदना कि अपने-आप ही तीर लक्ष्य को भेदे. चाहकर या अभ्यास से नहीं. जिस तरह इस बात को 'ओशो' सरल भाषा में समझा सकते हैं. उसी तरह आपने 'साहित्य में भ्रष्टाचार' विषय पर सरल भाषा में अपनी कलम चलाई है.
क्षमा करें मैं आपकी तुलना 'ओशो' से नहीं कर रहा हूँ. आपकी सरल भाषा, सरल शब्दावली पर कहने की इच्छा हुई तो ओशो याद आए.
आपके द्वारा प्रत्यंचा पर रखे गए 'तीर' लक्ष्य को अवश्य भेदेंगे. अपने आप. और,यही साहित्य साधना की पद्धति भी है.
जहाँ साधारण (प्रतिभावान) लेखक अर्थात बिना किसी 'भाई' वाला, माई बाप वाला लेखक, अपनी उपेक्षा का शिकार होता है तो उसकी पीर को देख कोई तो सहृदयी अपनी कलम उठा लेता है परशुराम की परशु की तरह.
अगली किश्तों की प्रतीक्षा रहेगी......
सही फरमाया आप ने ! आज -कल ऐसा ही हो रहा है - वह भी १००%
जब आँखे इस तरह की विडम्बनाओं को देखने लगती है तो , मन में जीने का सबसे कारगर व प्रभावी मंत्र - कर्म करते रहना व फल की चिंता न करना .. बार-बार आने लगता है. आशा है कि इस संक्रमण काल से जल्द ही बाहर निकल आये - हमारा साहित्य
सच लिखा है आपने । आज साहित्य में भ्रष्टाचार दिख रहा है । आलेख अच्छा लगा। धन्यवाद ।
कडुवा सत्य है ये ... वैसे साहित्य ही क्या हर विषय, कला, समाज में ये इर्षा, द्वन्द गुटबाजी, प्ररिस्पर्धा रहती है ... ये सच है की यह अच्छी बात नहीं ...
सर,
रहने दीजिए इस विषय को, इसका खुलासा हुआ तो ब्लाग जगत के भी कई चेहरे बेनकाब हो जाएंगे, जिनका काम ही पूरे दिन लाग लपेट करना है।
हैरानी तो इस बात पर हुई कि जिसे सब लोग जानते हैं कि वो क्या क्या नहीं करते हैं, वो भी सीना तान के अन्ना के पीछे खडे होकर अपनी कमीज अन्ना से भी ज्यादा सफेद दिखाने में लगे रहे।
बहुत बहुत आभार
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