‘अलाव’ का नागार्जुन जन्मशती विशेषांक
इस वर्ष जिन बड़े कवियों -अज्ञेय, शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है, उनमें जनकवि नागार्जुन का नाम भी आता है। बाबा नागार्जुन पर भी कई पत्र-पत्रिकाएँ विशेषांक निकाल रही हैं। दिल्ली से निकलनेवाली प्रसिद्ध द्वयमासिक पत्रिका का जनवरी-फरवरी २०११ अंक ‘नागार्जुन जन्मशती विशेषांक’ के तौर पर निकाला गया है।
‘अलाव’ के इस अंक को पूर्णतः बाबा नागार्जुन पर केंद्रित किया गया है जिसमें उनके कृतित्व, व्यक्तित्व और विचारों को हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों के लेखन से संजोया गया है। इस अंक को जिन खण्डों में विभक्त किया गया है, वो हैं- कवि हूँ पीछे, पहले तो मैं..., फाँक इजोतक तिमिरक थार, सारा जीवन असुखे जाबे, अर्जुन नागा...उर्फ़ बैजनाथ मिसिर, पर्दे के ‘यात्री’, जो भाषा दी उसने हमको: काव्यांजलि, बस थोडी और उमस, समय चलता जाएगा निर्बाध और परिचय।
‘कवि हूँ पीछे, पहले तो मैं...’ में बारह विद्वान साहित्यकारों ने अपने विचार रखे हैं। नागार्जुन के काव्य के बारे में विश्वनाथ त्रिपाठी यह मानते हैं कि "असल में नागार्जुन का काव्य इस बात का भी प्रतिमान है कि पारंपरिक काव्यरूपों में, अपनी भाषा के ठेठ मुहावरे में, हिंदी और उसकी बोलियों की लय में आधुनिक जटिल अंतर्वस्तु कैसे व्यक्त की जा सकती है।" मैनेजर पाण्डेय ने नागार्जुन के दसवें रस ‘विक्षोभ रस’ के बारे में बताया है कि "नागार्जुन जिसे विक्षोभ रस कहते हैं, उसके मूल में तीन भावों का योग होता है। वे भाव हैं करुणा, क्रोध और घृणा।" जीवन सिंह बताते हैं कि "नागार्जुन की कविता पढ़ते हुए निरंतर यह अनुभूति होती रहती है कि जैसे हम किसी युद्ध के मैदान में एक योद्धा को लड़ते हुए देख रहे हैं।"
नागार्जुन नेहरू जी के तथाकथित सोशलिज़्म के विरुद्ध थे। रविभूषण ने उनके विचारों पर प्रकाश डालते हुए बाबा की कविता को उद्धृत किया है जिसमें वे कहते हैं-
.बाहर निभा रहे हो अपने पंचशील-दशशील
ठोक रहे हो घर में तरुणों के सीने पर कील
अभी तुम्हारे दिल-दिमाग की खूबी कौन बताए
हे अद्भुत नटराज, तुम्हारी माया कही न जाए।’
परमानंद श्रीवास्तव अपने लेख में नागार्जुन की विचारधारा और विश्वदृष्टि पर प्रकाश डालते हैं। भगवान सिंह ने नागार्जुन की भाषा और रमाकांत शर्मा ने उनके काव्य में व्यंग्यबोध पर लेख लिखे हैं। रामनिहाल गुंजन उन्हें ‘गीतात्मक संवेदना का कवि’ बताते हैं। इसी क्रम में नचिकेता, हरपाल सिंह ‘अरुष’, अरविंद कुमार और शैलेंद्र चौहान ने उनके काव्य-कर्म पर प्रकाश डाला है।
दूसरे खण्ड ‘फाँक इजोतक तिमिरक थार’ में शिवशंकर मिश्र ने जिन छः कविताओं को बाबा के अनुरोधानुसार अनुवाद किया था, उन्हें यहाँ यथावत प्रस्तुत किया गया है। देवशंकर नवीन ने नागार्जुन की मैथिली में लिखी गई ‘यात्री’ के पर प्रकाश डाला है। ‘सारा जीवन असुखे जाबे’ तीसरा खण्ड है जिसमें शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने अपने डायरी के बाबा से संबंधित पन्नों को उकेरा है।
चौथे खण्ड ‘अर्जुन नागा... उर्फ़ बैजनाथ मिसिर’ में बाबा से संबंधित विभिन्न लेखकों के संस्मरण हैं। पद्मजा घोरपड़े ने उनके उपन्यास ‘बाबा बटेसरनाथ’ पर हिंदी विभाग, पुणे विद्यापीठ में हुई चर्चा और पत्राचार का संस्मरण लिखा है। कुबेरदत्त अपने संस्मरण में बाबा की घुमक्कडी पर चर्चा करते है और बताते हैं कि सड़क पर चलने वालों की हालत का बयान कभी बाबा ने इस प्रकार किया था- कुत्ते ने भी कुत्ते पाले/देखो भाई/ पैदल चलनेवालों की तो/शामत आई...। सुवास कुमार ने नागार्जुन से हुए साक्षात्कार का संस्मरण अपने लेख में रखा है। मधुकर गंगाधर उन्हें ‘हूटप्रूफ़ जनकवि’ मानते हैं तो तरसेम गुजराल उस घटना को याद करते हैं ‘जब जालंधर में नाचे बाबा’। माँझी अनंत ने अपनी विदिशा यात्रा के दौरान हुई बाबा से भेंट का संस्मरण लिखा है जब वे डॉ. विजय बहादुर सिंह के पास ठहरे थे। गंगाराम ‘राजी’ ने १९८४ में बाबा से बनारस में हुई भेंट का संस्मरण प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार महेश उपाध्याय, मधुवेश और शशिभूषण बडोनी ने भी अपने संस्मरण दिए हैं।
फिल्म निर्देशक अनवर जमाल ने बाबा के कुछ चित्र और उनके विचार पाँचवें अध्याय में प्रस्तुत किया है। छठवें अध्याय में प्रेमशंकर रघुवंशी, विष्णुचंद शर्मा, विश्वनाथ त्रिपाठी, श्याम सुशील, शोभाकांत, आनंद तिवारी और रामकुमार कृषभ ने बाबा को काव्यसुमन अर्पित किए हैं।
सातवें अध्याय में बाबा के गद्य पर अनिल सिन्हा, शांति विश्वनाथन और मणिकांत ठाकुर ने विचार रखे हैं। अनिल सिन्हा मानते हैं कि "उनके गद्य पर विस्तार से विश्लेषणात्मक दृष्टि से विचार किया जाना समय की मांग है।" शांति विश्वनाथन ने यह स्वीकार किया है कि "नागार्जुन ने अपने उपन्यासों द्वारा उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाया है।" मणिकांत ठाकुर ने उनके उपन्यासों- बलचनमा, बाबा बटेसरनाथ, नई पौध, वरुण के बेटे और दुखमोचन आदि पर चर्चा करते हुए बताते हैं कि इनमें निम्न वर्ग के अभावों के साथ संघर्षों का सजीव वर्णन मिलता है।
आठवें अध्याय ‘समय चलता जाएगा निर्बाध’ में नागार्जुन के विविध पहलुओं पर- अर्थात जनकवि, संस्कृति, एक्टिविस्ट,कालजयी रचनाकार, अक्खड और विद्रोही, दलित विमर्श के अलम्बरदार आदि पर सोलह लेखकों ने अपने विचार रखे हैं। अंत में, उनका जीवनवृत्त और रचनावृत्त भी पाठक की जानकारी के लिए दिया गया है।
नागार्जुन के बारे में यह तो प्रसिद्ध है ही कि वे निरंतर यात्रा पर ही रहते थे और जैसा कि सम्पादकीय में रामकुमार कृषभ ने कहा है- "नागार्जुन जीवन में ही नहीं, कविता में भी यात्री हैं। काल और इतिहास से गुज़रते हुए उनकी यात्रा के अनेक पड़ाव है, लेकिन लक्षित ठिकाना एक ही है- जनमुक्ति।" इस लक्षित ठिकाने पर पहुँचने और बाबा को समझने के लिए यह विशेषांक विशेष प्रमाणित होगा, ऐसी आशा की जा सकती है।
पुस्तक विवरण
पत्रिका : अलाव- जनवरी-फ़रवरी २०११
संपादक : रामकुमार कृषभ
पृष्ठ संख्या: ३८४
मूल्य: ५० रुपए
संपादकीय कार्यालय: सी-३/५९, नागार्जुन नगर
सादतपुर विस्तार, दिल्ली-११००९४
10 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी जानकारी.
मैं इसे अवश्य मंगाउंगी.
बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व स्तुत्य है। उनके क्रांतिकार विचार प्रेरणादायी हैं।
बढ़िया जानकारी के लिए आभार !
अलाव की गर्मी बनी रहे, सुन्दर आलेख।
नागार्जुन के विचार प्रेरणादायी हैं .......आभार!
नागार्जुन मिथक सरीखे विराट हैं अपने काव्य कर्म के चलते!संग्रहनीय अंक !
जानकारीपरक पोस्ट.... आभार
बढ़िया जानकारी के लिये आभार आपका !
सुवास कुमार ने नागार्जुन से हुए साक्षात्कार का संस्मरण अपने लेख में रखा है। मधुकर गंगाधर उन्हें ‘हूटप्रूफ़ जनकवि’ मानते हैं तो तरसेम गुजराल उस घटना को याद करते हैं ‘जब जालंधर में नाचे बाबा’। माँझी अनंत ने अपनी विदिशा यात्रा के दौरान हुई बाबा से भेंट का संस्मरण लिखा है जब वे डॉ. विजय बहादुर सिंह के पास ठहरे थे। गंगाराम ‘राजी’ ने १९८४ में बाबा से बनारस में हुई भेंट का संस्मरण प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार महेश उपाध्याय, मधुवेश और शशिभूषण बडोनी ने भी अपने संस्मरण दिए हैं।
जालंधर में नाचे बाबा...
हा...हा...हा.....
ये संस्मरण तो पढ़ने लायक होंगे ....
आभार,अच्छी जानकारी के लिए |
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