बुधवार, 10 अगस्त 2011

एक समीक्षा



मेरी पहचान


जीवन में रोज़ ऐसी घटनाएँ घटती हैं जिन्हें हम देखते तो हैं पर शायद ही महसूस करते हैं।  इन्हें महसूस करते हैं संवेदनशील रचनाकार जिन्हें इनमें कहानी के बीज दिखाई देते हैं।  ऐसे ही एक कथाकार हैं मनोज सिंह, जिनका मानना है कि "हर एक जीवन एक उपन्यास की भांति है तो मनुष्य का हर दिन एक कहानी, जहाँ हर पल कोई कथा एक नये रूप में जन्म लेती रहती है।  अपने चारों ओर कहीं भी नज़र डालें, कोई-न-कोई घटनाक्रम चलते-दौड़ते-घटते हुए मिल जाएगा।"  जीवन की ऐसी ही घटनाओं पर आधारित उनका कहानी संग्रह है- ‘मेरी पहचान’।

मनोज सिंह के कहानी संगह ‘मेरी पहचान’ में कुल ग्यारह कहानियाँ हैं जिनमें मानवीय मूल्य, पर्यावरण, आपसी रिश्ते, संवेदनाएँ आदि धागों से रचा-बुना गया है।  पुस्तक की पहली कहानी है ‘अनचाहे रिश्तों की चाहत’ जिसमें यह दर्शाया गया है कि भले ही हम मानवीय संबंधों को न मानें पर जब लगाव हो जाता है तो जानवरों से भी हम दिली संबंध जोड़ लेते हैं।  एक ओर तो वृद्धों को तिरस्कृत किया जाता है और दूसरी ओर पशुओं से प्रेम हो जाता है।  "कपुत की तो बात ही क्या करना, समझदार सपूत भी हर जगह उन्हें ले जाना नहीं चाहते, और वे घर पर अकेले रह नहीं सकते... अर्थात परेशानी ही परेशानी।  फिर भी, बुज़ुर्ग तो एक बार मन मार कर अकेले रह सकते हैं मगर जानवर के लिए तो सम्भव ही नहीं।"  इस स्वतंत्रता के हनन को दूर करने का उपाय यह निकाला जाता है कि पालतू कुत्ते को कहीं दूर ले जाकर छोड़ दिया जाय।  जब उसे छोड़ कर लौट रहे होते हैं तो उनकी ममता ऐसा करने से रोकती है।  वे पलट कर देखते हैं तो वह कुत्ता कार के पीछे दौडते आता दिखाई देता है।

‘बहते पानी का झरना’ आज के समाज में प्रगति के नाम पर हो रहे पर्यावरण के हनन की कहानी है। जीवन में आ रहे इस परिवर्तन को तथाकथिक प्रगति के माध्यम से दर्शाया गया है।  पहले सड़क पर नलके से शुद्ध पानी लिया और पिया जाता था।  आज बोतल बंद पानी का युग आ गया और नलका सूख गया है।  नल के सूखने का कारण यह है कि रास्ते को चौडा करने के लिए इर्दगिर्द के पेड काट दिए गये और यह सब विकास के नाम पर हुआ!  "विकास है।  सैकड़ों गाडियाँ बढ़ गयी हैं।  लोगों का आना-जाना ज़्यादा शुरू हो गया है। फिर इस क्षेत्र का भी विकास हो जाएगा।"  इस विकास की कीमत यह है कि जो लोग सुकून से जीवन व्यतीत कर रहे थे, अब उन्हें गाडियों की धूल, आवाज़ आदि के प्रदूषण को झेलना पड़ रहा है और उनके जीवन से "उनकी शांति भंग हुई थी। कुछ चंद रुपये जरूर आने लगे थे जिनकी आवश्यकता पर संदेह था। ऊपर से इन रुपयों की कीमत बहुत भारी अदा करनी पड़ती थी।"

बचपन के दोस्त कभी अचानक मिल जाते हैं तो ऐसी परिस्थिति बन जाती है कि उनके आग्रह को नकार भी नहीं सकते। ‘बिना टिकट’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें एक बचपन का साथी मिल जाता है जो बिना टिकट सफ़र कर रहा है।  टिकिट चेकेर को देने के पैसे चुकाने के बाद उसके आग्रह पर दोनों गोवा जाते हैं।  दोस्त की स्वच्छंद ज़िंदगी देखकर वह दंग रह जाता है और सोचता है कि झूठी इज़्ज़त के लिए वह मरा जा रहा है।  वह सोचने लगता है-"...सुबह दूध वाले को पैसे देने हैं, और किराने वाला...? हाँ, उसका भी बकाया है। साली...क्या ज़िंदगी है..! और एक वो है रोज़ मस्ती से इधर-उधर घूम रहा है।  उसके पास कुछ नहीं, मगर उसे कोई परवाह नहीं।  और मैं? दिनभर चिंता में।  तो कहीं वो मुझसे बेहतर तो नहीं?" अचानक मन में विद्रोह हुआ तो वह भी सामान बांधने लगता है  पहली गाड़ी पकड़ने के लिए, बिना टिकट!

‘चंद्रगुप्त चालाक बनो’ उस जुगाड़ू व्यक्ति की कहानी है जो केवल धौंस पर राजनीति में अपनी पैठ बनाता है; जिसके चलते उसके विद्वान शिक्षक भी उसकी शरण लेते हैं।  ‘एक वोट की कीमत’ भी राजनीति की पृष्ठभूमि में लिखी गई कहानी है जिसमें जातिवाद आधारित राजनीति और उसके चलते वंशवाद का बोलबाला है जिसे रोकने का अभियान केवल युवा पीढी के हाथ में ही है।

गरीब होना समाज में एक अभिशाप है।  ‘मुझे तुम्हारी छत चाहिए’ में एक गरीब कामवाली का चित्रण है जो अमीर घरों में काम करती है और हर घर का कच्चा चिट्ठा जानती है।  जब वह एक अकेले व्यक्ति के घर में काम के लिए जाती है तो इन तथाकथिक संपन्न महिलाओं की ज़बान हिलने लगती है।  वह एक सज्जन पुरुष है जो उस महिला और उसके बच्चों को सहारा देता है और वह छत उसके जीवन का सहारा बन जाती है।  ‘ऑपरेशन किश्तों में’ भी एक गरीब बुढिया की कहानी है जो अपने निकम्मे बेटे की खुशी के लिए मरते दम तक काम करती है और बेटा नशा करता तथा आधुनिक उपकरण [टीवी, सेल फ़ोन] खरीद कर किश्त की भुगतान का भार उस बुढिया पर डालता है।

हर आदमी अपने अहम में जीता है।  यह बात शायद रंगमंच के कलाकारों के लिए अधिक लागू होती है। निदेशक अपने को उत्तम समझता है तो नाटककार अपने को।  ‘रंगमंच का डायरेक्टर’ इसी मुद्दे को आधार बना कर लिखी गई कहानी है।  ‘सब्र’ एक छोटी सी कहानी है जिसमें कार चालकों की मानसिकता को उजागर किया गया है।  एक प्राणघातक हादसे को देख कर भी लोग फिर अपनी तेज़ गति से चलने लगते हैं, यह कहते हुए कि मृतक को सब्र नहीं था जिसके कारण एक्सिडेंट हो गया।

शीर्षक कहानी ‘मेरी पहचान’ में एक फ़ंतासी के माध्यम से यह जताया गया है कि मनुष्य अपनी पहचान भूलता जा रहा है।  वह अपनी पहचान अपने नाम, धर्म, जाति, पिता, पुत्र के नाम से बनाए रखता है पर मनुष्य के नाते नहीं।  तभी तो यमराज एक मानव का साक्षात्कार लेने के बाद कहते हैं कि "जितने भी ये पृथ्वी लोक के मानव आ रहे है, सभी अपनी पहचान भूल गए हैं।   इनसे तो अच्छे पृथ्वी के दूसरे जानवर, पेड-पौधे, पशु-पक्षी और कीडे-मकोड़े हैं, जो एक बार में ही अपनी सही पहचान बताते हैं।"  इस प्रकार कहानीकार ने यह जता दिया है कि मानव अपनी मानवता को भूलता जा रहा है।

आशा है कि मनोज सिंह का यह कहानी संग्रह ‘मेरी पहचान’ मनुष्य को अपनी पहचान और अपने परिवेश को बरकरार रखने की ओर प्रोत्साहित करेगा।

पुस्तक विवरण
पुस्तक का नाम : मेरी पहचान
कहानीकार : मनोज सिंह
मूल्य : २०० रुपये
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
२१-ए, दरियागंज
नई दिल्ली-११० ००२


16 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कहानियों का संग्रह लेकर आए हैं ।
    सुन्दर समीक्षा ।

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  2. मनोज सिंह के परिचय के लिए आभार आपका !
    आपकी समीक्षा से इसे पढने कि चाहत जागी है ! हार्दिक शुभकामनायें भाई जी !

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  3. समाज के इन्द्रधनुषी चित्रण के चितेरे से परिचय कराने का आभार।

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  4. मनोज जी को बहुत - बहुत बधाई is कहानी संग्रह की .....
    'अनचाहे रिश्तों की चाहत' pahli kahaani के shirshk से ही इसे पढने की चाहत होने लगी है .....
    देखते हैं कब nseeb hoti है .....

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  5. मनोज जी से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद..... सुंदर समीक्षा

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  6. आधुनिक बोध की कहानियां -अच्छा रिव्यू!

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  7. मनोज सिंह जी परिचय कराने के लिए आभार एक एक कहानी की समीक्षा करना उसके लिए आपको बधाई

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  8. अच्छी समीक्षा...संग्रह के प्रति जिज्ञासा जगाने में सक्षम.

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  9. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच

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  10. भाई जी,
    बहुत अच्छी समीक्षा की है !
    आभार आपका !

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  11. bahut sundar prastuti .
    रक्षाबंधन एवं स्वाधीनता पर्वों की शुभकामनाएं स्वीकार करें .

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  12. समीक्षा पढकर किताब पढने की इच्छा है। देखता हूं।

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  13. मनोज जी और उनकी कहानियों की पहचान कराने के लिए धन्यवाद. अच्छी समीक्षा. आपकी समीक्षाएँ मूल पुस्तक की जानकारी देने के साथ ही उसे पढ़ने की इच्छा जगाती हैं.

    समाज की विभिन्न समास्याओं से जुड़ी कहानियाँ लिखना, समाज(लोक) से जुड़े होने को दर्शाता है.
    मनोज सिंह जी को भी बधाई.पुस्तक अच्छी है.

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  14. लगता है ये संग्रह बहुत अच्छा होगा ... आपने उत्सिकता जगा दी है कुशल समीक्षक की तरह ...

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आपके विचारों का स्वागत है। धन्यवाद।