काका जनाने डिब्बे में चढ़ गए
जगह मिल सकी मेल में, कष्ट अनेकों झेल
टी टी बोला, निकलिए, ये डिब्बा फ़ीमेल
यह डिब्बा फीमेल, चढ़ गया उसका पारा
हमने कहा "जनाब, इसी का टिकिट हमारा"
कहं काका क्यों मुसाफिरों को व्यर्थ सताते?
लिखा फ़्रंटियर मेल, आप फ़ीमेल बताते।
----काका हाथरसी
[काका हथरसी की यह फुलझड़ी साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ के २० अगस्त १९६७ अंक से साभार]
6 टिप्पणियां:
वाह वाह, सही बात है।
काका हाथरसी को हास्यरसीभी कहते है :)
अब काका की दृष्टि का क्या कहिये पूरी काक दृष्टि थी :)
बहुत बढ़िया मजेदार रचना !
वाह...क्या बात है...
हा हा हा ! काका की क्या बात है जी .
एक टिप्पणी भेजें