संतोख की आपबीती
शाम ढल रही थी। पेड़ों के पीछे सूरज डूबने को था। चिड़ियों का कलरव एक सुंदर प्राकृत माहौल बनाए हुए था। उस पर चाय की चुस्की का मज़ा लेते घर के लॉन में बैठे हम मित्र गपशप कर रहे थे। इतने में हमारा फ़्लाइंग सरदार- संतोख सिंह पहुँच गया।
संतोख को हम फ़्लाइंग सरदार इसलिए कहते हैं कि वह सदा फ़्लाइंग विज़िट पर ही रहता था। आएगा, पाँच मिनट बैठेगा, सब की खबर लेगा और चल देगा अपनी मोटर बाइक पर। इसलिए आते ही उसे भी एक कप चाय आफ़र की गई। चाय की चुस्की लेते हुए वह मुस्कुरा दिया। हमने इस मुस्कुराहट का राज़ पूछा तो वह बताने लगा-
बात साठ के दशक की है। जब मैं हैदराबाद से दिल्ली पहुँचा तो देखा कि सब गरम कपडों में लिपटे हुए हैं और मैं हूँ कि हाफ़ शर्ट पहने हुए था। ट्रेन से उतर कर पता चला कि ठंड कहर ढा रही है और मुझे बंद डब्बे में उसका अनुमान भी नहीं लगा। खैर, अपना बैग लेकर क्लोक रूम में रखा और बदन में गर्माहट लाने के लिए पास की चाय की दुकान पर पहुँचा। चाय पीकर जेब में हाथ डाला तो सर्द मौसम में भी पसीने छूट गए। पर्स गायब और जेब खाली। मैंने चायवाले से कहा- भैया, मेरा पर्स किसी ने मार दिया है, तुम यह घड़ी रख लो जो मैं बाद में छुड़ा कर ले जाऊँगा।
बेचारा दयावान निकला। उसने कहा- अठन्नी की क्या बिसात है बाबूजी, पर्स मिलने पर दे जाना। परंतु मेरी समस्य तो गाँव पहुँचने की थी और उस समय बस का किराया छः रुपये था। अब पैसे लाएँ तो कहाँ से लाएँ? उस चायवाले से कहा कि क्या घड़ी रखकर छः रुपये मिल सकते हैं? उसने नकार दिया। स्टेशन के बाहर निकला और एक रिक्शे वाले से पूछा कि क्या उसे कोई ऐसा व्यक्ति मालूम है जो घड़ी रखकर पैसे दे सकेगा। उसने भी नकार दिया। अब मैं तो फँस ही गया। गाँव पहुँच जाऊँ तो रिश्तेदार मदद कर देंगे, पर गाँव पहुँचूंगा कैसे!
मुझे एक तरकीब सूझी। मैंने रिक्शेवाले से कहा कि क्या यहाँ कोई ब्लड बैंक है। उसने कहा कि वह ऐसे बैंक को जानता है। [शायद उसने भी कभी पैसे की ज़रूरत पड़ने पर खून दिया होगा।]
मैंने उससे कहा कि मुझे वहाँ ले चलो। उसने वहाँ पहुँचाने के चार रुपये मांगे। मैंने कहा कि चार नहीं पाँच रुपये दूंगा पर वहाँ कुछ देर ठहरना होगा। वह मान गया।
हम ब्लड बैंक पहुँचे। मैंने अपना खून दिया और उसके मुझे बारह रुपये मिले। वैसे भी, मैं तो ब्लड डोनर हूँ ही। मैं स्टेशन लौट आया और उस रिक्शेवाले को छः रुपये दिए। उसने इन्कार कर दिया। उसने कहा कि आपको सच में पैसे की ज़रूरत है तो मैं आपसे पैसे नहीं लूंगा।
मैंने कहा- भाई, मुझे गाँव जाने के लिए छः रुपये की ज़रूरत है। बचे छः रुपये तुम ले लो क्योंकि तुमने मेरी इतनी मदद की है।
उसने कहा- ठीक है, बाबूजी। बोहनी का समय तो आप एक रुपया दे दीजिए।
मैंने उसे एक रुपया दे दिया और चाय वाले के पैसे अदा करके अपना बैग क्लोक रूम से निकाल कर गाँव की बस में बैठ गया।
फिर, जैसे दूर कहीं खो गया संतोख सिंह बोला- दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं जो मानवीय संवेदना से भरे होते हैं। पर पता नहीं क्यों, ऐसे ही लोग गरीब होते है!!!!!
20 टिप्पणियां:
इसे संस्मरण ही मानूँ या या लघुकथा समझूँ?
खैर, जो भी है....मार्मिक है!
आपका यह संमरण दिल में एक चुभन छोड़ गया , निशब्द ........
रिक्शे वाले को नमन , कौन कहता है कि अब इंसानियत नहीं रही ...
संवेदना रहित होना ही धनी बनने मूल मंत्र है।
आभार
ऐसी परेशानी किसी के सामने ना आये,
आप तो साठ के दशक की बता रहे है,
आज कल मजबूरी का फ़ायदा उठाने को तो लोग धंधा बना कर बैठे है
एक इतना आत्मीय संस्मरण जो मुस्कान के साथ शुरु हुआ और समाप्ति पर आंखों को नम कर गया।
कमाल का लिखते हैं आप, सरस, रोचक और प्रवाह मय।
आज भी सोंचने को मजबूर करती है यह रचना ....शुभकामनायें आपको !!
जैसे जैसे धन आता है वैसे ही संवेदनाएं चली जाती हैं.... मर्मस्पर्शी संस्मरण..
बढ़िया संस्मरण भाई जी,
मन को छू गया !
आज मिलाप के मजा अंक में आपकी
अनुवादित तीन प्रश्न कहानी पढ़ी बधाई !
ऐसे ही लोग गरीब होते हैं -हाय ,यह प्रारब्ध है या विडम्बना !
बहुत ही गहरी लेकिन कडवी बात।
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मैं भी आपसे पूर्णत सहमत हूँ ,जो मानवीय संवेदना से भरे होते है वे गरीब होते है.सुन्दर संस्मरण
कहानी बहुत अच्छी है . लेकिन खून बेचने वाली बात पसंद नहीं आई . हालाँकि ऐसा भी होता है .
इसी लिए कहावत है -दिल्ली दिल वालो की !
जिनमें संवेदना होती है, उन्हीं को ईश्वर बार बार परखता रहता है।
सड़क पर कोई हादसा हो जाए तो लंबी कारों वालों को रूकते मैंने कभी नहीं देखा अलबत्ता आस पास के लोग ज़रूर दौड़े चले आते हैं
आहा.. बेहतरीन संस्मरण... मानवीय संवेदना और गरीबी का शायद जन्म-जन्मान्तर का नाता है.. इन सब संवेदनाओं को बेचकर ही पैसे आते हैं..
परवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
आभार
मन को छूता संस्मरण....
कठिन समय में कोई तरकीब का सूझना संतोख जी के 'presence of mind' को दर्शाता है.
आदमी को अपने कठिन समय में समाधान की खोज स्वयं ही करनी पड़ती है. बशर्ते कि वह सजग रहे और अपने आस-पास की चीजों की सहायता लेने की सोचे. हर सवाल का समाधान होता ही है. अन्यथा सवाल 'सवाल' ही नहीं रहेगा और कोई समस्या 'समस्या' नहीं.
उस रिक्शे वाले को और ऐसे सभी महानुभावों को 'सलाम' जो मुसीबत में लोगों की सहायता के लिए अचानक आ जाते हैं किसी फरिस्ते की तरह.
यूँ ही दिल मे उतर गय कोई;
मोहब्बत का कोई नाम पता नही होता.
अछ्छे लोग आज भी हैं.
अब अगर दुनियाँ की आपा धापी मे वो सह्रदय न रह पायें तो इसमे उनकी गलती क्या है.
जरूरत है हम अपने अन्दर के इंसान को जिन्दा रख पायें.
आपको सादर चरण स्पर्श.
प्रणाम.
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