बाज़ आए ऐसी शादियों से
अभी हाल ही में कुछ शादियों में जाने का अवसर मिला। हर शादी में शिर्कत करने के बाद मन यही कहता कि भविष्य में किसी शादी में नहीं जाएँगे, परंतु जब कोई प्रेम से निमन्त्रण देकर जाता है तो लगता है कि यह सामाजिक धर्म तो निभाना ही पड़ेगा और फिर वही प्रण...। इस प्रण के भी कारण हैं।
शादी का समय आठ बजे का दिया जाता और हम ठहरे समय के पाबंद। पहुँच जाते हैं ठीक आठ बजे तो आलम यह कि वहाँ अभी दुल्हन वाले ही नदारद हैं। अब आए हैं तो बैठना ही पड़ेगा। जो लोग व्यवस्था में व्यस्त हैं उनको छेड़कर बात कर लेते हैं। वे बेचारे भी शिष्टता के नाते दो चार सवाल-जवाब कर लेते और चलते बनते हैं। धीरे-धीरे दुल्हन के घर से लोग शादीखाने में आने लगते हैं तो ढाढस बन्धता है कि कार्यक्रम अब शुरू होगा, पर नहीं- अभी तो दुल्हन ब्यूटी-पार्लर गई हुई है और आती ही होगी। ‘वह आती ही होगी’ की प्रतीक्षा एक घंटे बाद खत्म होती है। अब शुरू होते हैं मंडवे के रस्म!
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यह तो हो गई दुल्हनवालों की बात। अब करते हैं बात बारात की। बारात आनेवाली थी आठ बजे पर अब दस बज रहे हैं। सेल फ़ोन पर बात करने से पता चला कि बारात अभी रास्ते में है और एक-आध घंटे में पहुँचेगी। मरता क्या न करता- बस इंतेज़ार करना है। बारात आकर द्वार पर रुकी तो बारातियों को और दम आ गया। मुँह में नोट देखकर बाजेवालों के बाजुओं में भी दम आ ही जाता है। फिर क्या है, आधा घंटा नाच चलता रहता है। सब अपने अपने जौहर यहीं तो दिखाते हैं! मुझे इनके नाच को देखकर उन अहीरों की याद आ जाती है जो शरद पूर्णिमा के दिन अपने खुलगों के सामने नाचते हुए इनको जुलूस में ले जाते हैं।[अब यह तमाशा भी शहरीकरण के कारण लुप्त होता जा रहा है]। बस फ़र्क यह है कि यहाँ खुलगे की जगह दुल्हा था पर देखने में खुलगे जैसा ही।
आजकल लोगों के पास समय नहीं है और न ही वे शादी के रुसूमात में दिलचस्पी रखते हैं। पंडित भी जल्दी में होता है तो आजकल की शादियों के रुसूमात भी उतने लम्बे नहीं होते। बस, दुल्हा-दुल्हन को शाही कुर्सियों पर बिठा दिया जाता है। पंडित कुछ मंत्रोच्चारण करता है जिसका अर्थ शायद वह भी नहीं जानता। इसके बाद अक्षत छिड़क देता है। लोग भी जहाँ खडे हैं, वहीं से अक्षत के चावल फेंक देते हैं जो हर कहीं गिरते हैं पर दुल्हा-दुलहन पर नहीं। इसके बाद सुरुचि भोज के नाम पर ऐसे टूट पड़ते हैं कि न तो भोज का मज़ा आता है और न ही रुचिकर लगता है।
दुल्हनवाले दुल्हेवालों की खातिरदारी में लगे रहते हैं। उन्हें न तो आनेवालों की सुध रहती है और न खाने वालों की। बस, एक ही चिंता रहती है कि दुल्हेवाले खुश रहें और ब्याह शांतिपूर्वक सम्पन्न हो। हम भी उनकी मजबूरी समझते हैं, इसलिए दुल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद देकर और दोनों पक्षों के पिताओं को बधाई देकर अपना ‘लिफ़ाफ़ा’ पकड़ा कर निकल पड़ते हैं।
यह तो रही शादी की बात। दुल्हे वालों के रिसेप्शन की बात फिर कभी करते हैं॥
देखा...... हमने कहा था न.....!
जवाब देंहटाएंएक न एक दिन आपके भीतर के व्यंग्यकार को इधर-उधर टिपियाते फिरने से असंतोष होना लाजमी था. आप बढ़िया व्यंग्य लिखते हैं सा'ब!
तो हो जाए इसकी अगली कड़ी भी.
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जवाब देंहटाएंऎसा मत करियेगा, ज़नाब !
किसी की बरबादी में गवाही देना बड़े पुण्य का काम है !
खुलगों ... यह सँबोधन / सँज्ञा मेरे लिये नया है, यह क्या होता है ?
आगे से ध्यान रखेंगे।
जवाब देंहटाएंवैसे मैं तो बडी मुश्किल से ही किसी शादी वगैरह में शिरकत करता हूँ।
(ये खुलगे क्या होता है, समझ नहीं आया)
भोजन- अजी लोग तो आते ही पेट पूजा के लिये है, उन्हे शादी से क्या मतलब,
अब बडी बेसब्री से दूल्हे वालों के रिसेप्शन का इंतजार है,
खाने के लिये नहीं मजेदार बाते सुनने के लिये।
आदरणीय डॉ. अमर कुमार जी, हैदराबादी भाषा में सांड को खुलगा कहा जाता है:)
जवाब देंहटाएंबड़ा भारीपन है इन शादियों में, बहुत भार छांटना पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंअब तो रिसेप्शन का इंतज़ार है।
आदरणीय प्रसाद जी ,आपनी बाराती बन कर आदर सत्कार प्राप्त किया उस पर स्वादिष्ट भोजन
जवाब देंहटाएंऔर मुफ्त में नाच, रही समय की बात वह तो निकलना ही पड़ेगा आज आपका यह रूप भी दिख गया वरना टिप्पणी में झलक तो दिखती थी |
सही ढंग से सब बयां किया आपने..... आजकल यही होता है शादियों में.....
जवाब देंहटाएंthere should be provision of "early bird incentive" in such type of functions....
जवाब देंहटाएं'खुलगे' पहली बार सुना/पढ़ा. बाकी तो बहुत कुछ मेरी भी आपबीती है जी. पर मेरी शादी में ऐसा कुछ नहीं हुआ था.
जवाब देंहटाएंशादी की बात से अपनी शादी की बात याद आ गई. मैं समय पर पहुंचा था मगर घोड़ी की प्रतीक्षा में देर हो गयी. विवाह स्थल पर दुल्हे की (मेरी) बेसब्री से प्रतीक्षा हो रही थी. यह तो बाद में पता चला की इसमें लड़की वालों (मेरी पत्नी के घरवालों) का भी कोई दोष नहीं था. घोडी सप्लाई करने वाले ने गलत समय नोट कर लिया था.
जवाब देंहटाएंखैर, वैसे हम दोनों (मैं और मेरी पत्नी) आपकी तरह समय के पाबंद नहीं हैं. इस लिए हमारा सामना इस तरह की स्थिति से नहीं हुआ है. हम दोनों परिचितों की शादी में फेरे के समय या अंत में पुहुँचते हैं और अन्य रिश्तेदरों का भोजन में साथ देकर समय पर घर आ जातें है.
व्यंग्य अच्छा है. आपके इस लेख को पढ़ने से पहले विवाह आदि कार्यक्रमों में देर से जाना हमें बहुत ही अखरता था. मगर आपका यह लेख पढ़कर लगने लगा है हम जो करते थे ठीक ही करते थे.
बहुत बढ़िया व्यंग है शादी पर,वाकई ऐसा ही होता है !
जवाब देंहटाएंदूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद देना तो ठीक है पर
यह लिफाफा पकडाना बहुत बुरा लगता है !
अरे यही सब तो हम भी झेल रहे हैं इन दिनों !
जवाब देंहटाएंमनोरंजक पोस्ट के लिए आभार आपका भाई जी !
जवाब देंहटाएंबहुत दिलचस्प .... बहुत रोचक ....
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया, सचमुच मजा आ गया।
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हॉट मॉडल केली ब्रुक...
लूट कर ले जाएगी मेरे पसीने का मज़ा।
बहुत रोचक तरीके से लिखा है इन प्रसंगों को ....
जवाब देंहटाएंदक्षिण भारत में यह रिवाज बहुत ही लोकप्रिय है ! मै भी इसे झेलते रहता हूँ ! यह ब्यंग नहीं सत्य और पारंपरिक है !
जवाब देंहटाएंgood mrg sir, waiting for reception.dr.perisetti srinivasarao
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