लघु से लघुतर बनती कविता- नन्हें मुक्तक
कुएँ से
पानी की तरह
निकाल लेता हूँ
सूक्तियों को।
सूक्तियों जैसे ‘नन्हे मुक्तक’ के प्रवर्तक कहलाते हैं तेलुगु साहित्य के प्रसिद्ध कवि डॉ. एन. गोपि, जिन्होंने ‘नानीलु’[नन्हे मुक्तक] की काव्य विधा को जन्म दिया। उनके नन्हे मुक्तक अब अनुवाद के माध्यम से हिंदी में भी आने लगे हैं। उनकी नवीनतम कृति ‘गोपि के नन्हे मुक्तक’ का काव्यानुवाद हिंदी के विद्वान डॉ. बी. सत्यनारायण ने किया है जो अपने उपनाम ‘डॉ. सना’ के नाम से साहित्य जगत में जाने जाते हैं।
‘गोपि के नन्हे मुक्तक’ के आमुख में डॉ. एन. गोपि ने नन्हे मुक्तक की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि "बिना अतीव कसावट और बिना अनावश्यक ढिलाई के साथ नानी [नन्हा मुक्तक] मेरे द्वारा रूपायित २०-२५ अक्षरोंवाला एक ढाँचा है, एक छंद है। नानी माने मेरे [ना;नावि=मेरे] और तेरे [नी;नीवि=तेरे] हैं। मतलब है हम सब के। नानी माने नन्हा बच्चा भी है। ये भी नन्ही कविताएँ हैं न!" इनमें मुक्तक जैसा निर्वाह किया जाता है अर्थात चार पंक्तियों में अपनी बात कही जाती है; यद्यपि ये छंदोबद्ध नहीं होते।
हिंदी पाठकों को तुलुगु के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ.. गोपि और उनके नन्हें मुक्तकों का छोटा सा परिचय देना यहाँ अनुपयुक्त न होगा। यह परिचय उनकी इस पुस्तक से लिया गया है:--
डॉ. एन. गोपि तेलुगु साहित्य में एक विशिष्ठ स्थान रखते हैं। उनका जन्म २५ जून १९४८ को आंध्र प्रदेश के तेलंगाना प्रान्त के नलगोंडा जिले के भुवनेश्वर में हुआ। तेलुगु कविता में ‘नानिलु’ [नन्हें मुक्तक] की रचना-प्रक्रिया के ‘ट्रेण्ड सेटर’ के रुप में आप प्रख्यात हैं। अब तक इनके २९ ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। वे तेलुगु विश्वविद्यालय के वाय्स चांस्लर रह चुके हैं। नानिलु [नन्हें मुक्तक] का परिचय देते हुए वे बताते हैं कि
"इनमें मैंने चार चरणों के ही नियम का पालन किया। चरणों के विभाजन में ‘वचन कविता’ के अंतरगत जो संगति है वह इन में नहीं है।फिर भी निर्माण की दृष्टि से इनमें भी नियमबद्धता देखी जा सकती है। इनमें प्रथम दो चरणों में एक भाव का अंश निहित है तो अंतिम दो चरणों में दूसरा। गहनता के वास्ते ही छोटी कविता का जन्म हुआ है; इसमें कोई संदेह नहीं है। स्मरण रखने की सुविधा तो अनुषंगिक प्रयोजन है। जहाँ तक संभव हो इन में व्यर्थ पदों का निरोध होता है। गाथासप्तशती में इस प्रकार के संक्षिप्तीकरण का कौशल दिखाई देता है। इन गाथाओं का तेलुगु में अनुवाद करते समय राल्लपल्ली अनंतकृष्ण शर्मा ने उनके लिए छोटे छंदों का ही चयन कर लिया है; जैसे आटवेलदि, तेटगीति और कंदम। मूल की सांद्रता को वे तेलुगु में बखूबी ले आए। किसी भी कविता में कवि सब नहीं कहता। शेष का [जो अनकहा है] पाठक अंदाज़ लगा लेता है। पाठक की साझेदारी से भाव सारे समग्र रूप से आविष्कृत हो जाते हैं।
"इस विधा को कई तेलुगु साहित्यकारों ने हाथों-हाथ लिया है। नन्हें मुक्तकों की आकर्षण-शक्ति से मुग्ध होकर ‘वार्ता’[तेलुगु दैनिक पत्र] के तत्कालीन संपादक ए.बी.के.प्रसाद ने २० सप्ताह तक इन्हें क्रमशः अपने पत्र में प्रकाशित किया। एस.राघव, कोट्ला वेंकटेश्वर रेड्डी, शिरीश, एस.आर भल्लम, सोमेपल्ली वेंकट सुब्बय्या, अंवल्ला जनार्धन, यशश्री रंगनायकि आदि जैसे तेलुगु रचनाकारों ने इस विधा में रचनाएं लिखी हैं।"
‘गोपि के नन्हे मुक्तक’ में डॉ. एन. गोपि के ३६५ नन्हे मुक्तक संकलित किए गए हैं जिनमें जीवन के अनुभवों से लेकर प्राकृतिक सौंदर्य को समाहित किया गया है। जीवन के सब से मधुर क्षण प्रेम के ही होते हैं और कवि तो प्रेम को अनेक रंगों में देखता है। डॉ. एन. गोपि भी इसके अपवाद नहीं है जिसका प्रमाण उनके अनेक नन्हे मुक्तकों से मिलता है। प्रेम के कई रूपों को कवि ने अपनी लेखनी में उतारा है। निश्चल प्रेम से लेकर पैसे के प्रेम तक कई रंग इन मुक्तकों में मिलेंगे।
मेरा पेट भर जाता है/ तुम्हारे खा लेने से, /बातें करने से तुम्हारे / खिल उठता है मेरा मौन।
तुम्हारा कहना है--/ ‘सब से प्रेम करता हूँ’/ पर परवाह नहीं करते/ पडोसी की।
अरे! पैसे ने/ क्या कर दिया!/ प्रेम से परोसे भोजन का भी/ दाम लगा दिया।
नज़रें/ दीपक तो हैं, पर/ तेल का झिर्रा रहता है/ दिल में ही।
कवि जब प्रकृति के दर्शन करके मंत्रमुग्ध हो जाता है तो कविता अनायास ही फूट पड़ती है, भले ही वह कम शब्दों में वर्णित की गई हो। डॉ. एन. गोपि ने अपने नन्हे मुक्तकों में प्रकृति के सौंदर्य को इस तरह समेटा है-
फूल नहीं बन्धे/ किसी कानून से,/ खिलने में/ या मुरझाने में!
चार-दीवारी पर/ बैठे पंछी,/ दिखते हैं/चलती-फिरती सजावट-से।
सूर्योदय/ व्यर्थ नहीं गया,/ फूलों में रंग तो/ भर गया।
पत्तों की/ सरगोशी सुनने/ बादल उतर आया है/ तनिक नीचे।
मौसम के बदलाव से प्रकृति का रंग भी बदलता है और कवि उस बदलाव को भी महसूस करता है।
कितने दिनों बाद/ निकली है धूप!/ बारिश की पुहारों के सिर पर/ ओढ़नी-सी।
मूसलाधार/ वर्षा ही वर्षा/ मानो सूर्य का/ शिर-स्नान हो रहा है।
बरसात हवा पर चढ़/ सवारी करती है,/ जमीन उसका हाथ पकड़/ नीचे खींचती है।
हम ध्यान नहीं देते/ बारिश में भी एक लय,/ नाद है,/ नृत्य भी।
कवि का ध्यान मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों पर भी है। आपसी सम्बंधों, दोस्ती, रिश्तेदारी, आशा-निराशा, राग-द्वेष, खुशी-आँसू जैसे मानवीय संबंधों पर भी अपनी सोच को इन नन्हे मुक्तकों के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाते हैं, जब वे कहते हैं-
मुसीबतों में/ मत खोना अपनी हँसी,/ वरना, सुख में/ पाओगे कैसे प्रकाश!
दोस्ती के लिए/ कुछ भी सह लूँगा,/ आत्मीयता के लिए/ जान दे दूँगा।
जलती बातें तो/ बुझ जाती हैं,/ रह जाती है/ राख ही!
समझ/ अन्धी हो गई तो,/ आचरण/ लंगड़ा हो जाता है।
आज के अधिकतर साहित्यकार आलोचना से कतराते हैं पर डॉ. गोपि का मानना है कि कोरी प्रशंसा भी एक धोखा है। तभी तो वे कहते हैं-
प्रशंसा है पद के लिए/ तुम्हारे लिए नहीं/ भ्रमित हुए तो/ कुर्सी लड़खड़ा जाएगी।
उस घाव को/ प्रणाम करता हूँ,/ जिसने/ प्रदान किया गीत।
उलटी बयार में ही/ पतंग ऊँची उड़ती है,/ आलोचनाओं के बीच/ तुम भी हो वैसे ही।
हवा थम गई/ पतंग उड़ाना मत/ मन ठीक नहीं/ गीत गाना मत।
यक्ष ने जब प्रश्न किया था कि सबसे आश्चर्यचकित भूल क्या है तो युधिष्ठिर ने कहा था ‘मृत्यु’! डॉ. गोपि ने इस विषय को अपनी कविता में नहीं भुलाया, बल्कि कई मुक्तक इस विषय के नाम किए।
गर्भ से रिहाई हो/ या जीवन से मुक्ति/ दोनों हैं/ एक ही।
जीवन कुछ और नहीं/ नित्य-जाग्रति,/ निद्रा है/ सजीव मृत्यु।
मौत से/ डरता नहीं मैं/ पर लिखने को बाक़ी हैं/ बहुत-सी कविताएँ।
तुम चाहते हो मेरी मौत!/ साजिश किसलिए?/ छीन लो मेरे हाथ से कलम/ यही है मेरी मौत!
जैसा कि अनुवादक डॉ. सना [बी.सत्यनारयण] कहते हैं-"प्रस्तुत संग्रह में डॉ. गोपि की ढेर सारी अनुभूतियाँ मिलती हैं। मन का चित्र, मनुष्य का चित्रण, राजनीति, साम्यवाद, साम्राज्यवाद का विरोध, मानव-जीवन के वैविध्य का अत्यंत गहराई के साथ चित्रण...।"
इस पुस्तक का प्रकाशन आंध्र प्रदेश हिन्दी अकादमी, हैदराबाद के वित्तीय अनुदान से सम्भव हो पाया है। इन मुक्तकों के साथ दिए गए प्रतीकात्मक रेखांकन को आर्टिस्ट मोहन ने सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। आशा है कि इस कविता संग्रह को भी डॉ. गोपि के पहले नन्हे मुक्तक संग्रह की भांति पाठकों का स्नेह मिलेगा क्योंकि इतनी सारी अनुभूतियों को उन्होंने अपने अनुभवों से निचोड़ कर कलम चलाई है-
नन्हे मुक्तकों की
रुमाल से,
खून के दागों को
पोंछ लिया हूँ।
पुस्तक विवरण
पुस्तक का नाम: गोपि के नन्हे मुक्तक
कवि: डॉ. एन. गोपि
अनुवादक: डॉ. सना
मूल्य: १०० रुपये
प्रकाशक: सारिका प्रकाशन
१३-६-४३४/सी/६९, मारुति नगर
रिंग रोड़, हैदराबाद-५०० ००८.
इस पुस्तक के बारे में आपकी समीक्षा पढकर पुस्तक को देखनेकी इच्छा हो गयी है।
जवाब देंहटाएंहोली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्या ख्याa।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
नन्हे मुक्तक के बारे में जानकारी देने के लिए धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंआकर्षक ....
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
telugu naneelu ko hindi sahitya jagat tak pahunchanemen aapki eh sameekshatmak padhathi bahut abhinandaneey hai. dr.perisetti srinivasarao
जवाब देंहटाएंनानीलु का अर्थ
जवाब देंहटाएंसमीक्षा से खुला.
संवाद ज़रूरी
तेलुगु हिंदी का.
inaki rachnaonke baare me bahut kam janti hun.........
जवाब देंहटाएंआप की पोस्ट ने,
जवाब देंहटाएंदी है,
बढ़िया जानकारी,
मैं हूँ आभारी.
यह विधा तो बहुत भाई हमें, और भी ढंग से समझनी होगी।
जवाब देंहटाएंनन्हे मुक्तकों की
जवाब देंहटाएंरुमाल से,
खून के दागों को
पोंछ लिया हूँ।
जानकारी से भरी पोस्ट बहुत अच्छी लगी और आपका आभार पढ़वाने के लिए
डॉ गोपि से परिचय अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा की है आपने । आभार ।
बहुत सुंदर लगी पुस्तक समीक्षा,धन्यवाद
जवाब देंहटाएंPustak sameekcha acchi hai...
जवाब देंहटाएंMuktakon ka prayog to hindi sahitya me sadiyon se ho raha hai
ज्ञानवर्धन हुआ ,
जवाब देंहटाएंआभार
परिचय के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार और बी. सत्यनारायण जी को सार्थक अनुवाद के लिए हार्दिक बधाई |
जवाब देंहटाएं