गुरुदयाल अग्रवाल जी की व्यथा:
पिछली पोस्ट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वरिष्ट कवि गुरु दयाल अग्रवाल जी ने अपनी व्यथा एक ईमेल के माध्यम से इस तरह बयान की :-
कुछ बातें ऐसी भी होती हैं जिनमें कोई बात नहीं होती मगर कभी कभी कोई बात बिनाबात बात बन जाती है. मगर यहाँ तो बात कुछ ऐसी थी:
इक शहंशाह ने अपनी शोहरत का सहारा लेकर
हम जैसे मासूम शरीफों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक
या यूं कहा जाए
खुदा और नाखुदा मिल कर डुबो दें ये तो मुमकिन है
मेरी वजह तबाही सिर्फ तूफां हो नही सकता
अब इन बात बनाने वालों को कैसे बताया जाए(मतलब आपसे ही है) क़ि हमतो तूफानों मे किनारा ढूँढने वाले हकीर फकीर हैं और हर उम्र में जवानी का सहारा तलाशते रहते हैं. ये तो खुदा का फजल है क़ि जब उनसे महशर में थोड़ी नोंक झोंक हो रही तो न जाने क़िस बात पर खुश हो कर बोले जाओ मैं तुम्हें "डोरियन गिरे" की शक्सियत अता फरमाता हूँ और साथ ही ताकीद भी कर दी क़ि कभी शीशा मत तोड़ना इसलिए जनाब कुछ खुदा के फजल से और कुछ आपकी दुआओं के असर से नाचीज की जवानी आजतक कायम है. अब इंसान अगर जवानी में ही किसी के काम न आये तो उससे बदतर इंसान कौन होगा इसलिए जवान होते ही हमने ऐलान कर दिया था
मैं खुदा की राह पर चलने वाला आख़री इंसान हूँ
ले लीजिये गर आपको मेरी जवानी चाहिए
और आजतक जिसने भी जब कभी भी हमें सदा दी है हमने किसी को भी नामुराद
नहीं किया. अब जब हमारे उसूलों की चर्चा होने लगी तो कई शायरों ने अपने अपने
अंदाज में तरह तरह के शेर लिख डाले - जरा गौर फरमाएं :
सागर निजामी साहब "मारा मुझे ए सागर फितरत की इनायत ने
या तुम न हसीं होते या में न जवां होता "
मजाज साहब "कुछ तुम्हारी निगाह काफिर थी
कुछ मुझे भी खराब होना था"
वगेरहा वगेरहा
मगर सरकार असल मुद्दा तो ये नहीं है. असल मुद्दा तो ये है क़ि इंसान फक्त इंसान होता
है अगर उसको अच्छा इंसान कह दिया जाए तो इंसानियत ज्यादा अहम हो जाती है ठीक
इसी तरह अजनबी अजनबी होता है मगर उसको ७५ साल का अजनबी कह दिया जाए
तो ७५ साल अहम हो गये और अजनबी "बेचारा" बनके रह जाता है. आप तो हमारे दोस्त हैं
और अजीज भी इसलिए आपसे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी इसलिए कुछ कह तो नहीं सकते हाँ
इतना ही अर्ज तो कर ही सकते हैं :
हमारा सफर था इक मोहब्बत का रस्ता
सफर रफ्ता रफ्ता कट रहा था रफ्ता रफ्ता
दोस्तों की इनायत क्या कहें
दिल हमारा तोड़ा और तोड़ा रफ्ता रफ्ता
मगर जनाब इतना और अर्ज कर दूं क़ि
मोहब्बत शान है मेरी
मोहब्बत आन बान है मेरी
मोहब्बत मेरा महकमा है
मोहब्बत पहचान है मेरी
जनाब चंदरमोलेश्वर साहब आदाब
खाकसार
गुरु दयाल अग्रवाल
हम गुरु दयाल अग्रवाल जी का दर्द समझ सकते हैं। हम अधिक कुछ न कह कर नज़ीर अकबराबादी के इसी दर्दे-बयानी को यहाँ उद्धृत करते हैं :
अब आके बुढा़पे ने किए ऐसे अधूरे
पर झड़ गए, दुम झड़ गई, फिरते है लंडूरे...
सब चीज़ का होता है बुरा हाय बुढा़पा
आशिक को तो अल्लाह न दिखलाए बुढा़पा :)
बुढ़ापे से बड़ा दुःख कोई और नहीं ।
जवाब देंहटाएंबुढ़ापे पर आपकी पोस्टें एक पुस्तक का रूप कब ले रही हैं?
जवाब देंहटाएंबुढापा कोई दुख नही हे, यह भी जीवन का एक रुप हे, जिसे हम ने बिताना हे, तो क्यो रो कर बिताये, इसे भी जिन्दगी की तरह हंस कर बिताये.... फ़िर देखे जिनद्गी कितनी हसीन हे..
जवाब देंहटाएंमैं खुदा की राह पर चलने वाला आख़री इंसान हूँ
ले लीजिये गर आपको मेरी जवानी चाहिए
सभी शेर बहुत अच्छॆ लगे शेर क्या पुरी पोस्ट ही अच्छी लगी, धन्यवाद
-पुरुष और बुढापा ? छत्तीस का रिश्ता !
जवाब देंहटाएंजवानी और जवांमर्दी पर यह याद आया-
अभी नादाँ हो खो दोगे दिल मेरा
तुम्हारे लिए ही रखा है ले लेना जवां होकर
acchha aur maarmik aalekh hai...saadhuvaad...!!
जवाब देंहटाएंबुढापे का गम नहीं,अगर जवानी में कट जाए.
जवाब देंहटाएंसलाम.
गर्दिशे-वक्त ले न डूबे कही
जवाब देंहटाएंरक्से-अव्वाम और तेज करो
शेरो शायरी भरी पोस्ट अच्छी लगी!
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंहमें तो रुचिकर लगा ....शुभकामनायें बड़े भाई !!
जवाब देंहटाएंदिलजले और जलजले ....दोनों ही सदा जवान रहते हैं.
जवाब देंहटाएंइन दोनों का यह संवाद मर्मभेदी बन पड़ा है.
एक शेर याद आ रहा है अर्ज किया ,
जवाब देंहटाएंबढ़ती उम्र में कुछ अहतियात लाजिमी है
यह वह दरिया है जो बहते बहते उछाल लेता है|
प्रसाद साहेब बहुत अच्छी पोस्ट में तो कहूँगा बस लिखते रहिये
केवल इतना ही कहूँगी कि ये नोंक-झोंक बड़ी ही खूबसूरत हैं।
जवाब देंहटाएं