सोमवार, 8 नवंबर 2010

वैशाली- विश्व का पहला बड़ा लोकतंत्र!

विश्व का पहला बड़ा लोकतंत्र - राजेश कुमार व्या


संसार के पहले सबसे बड़े लोकतंत्र वैशाली के अतीत से कोल्हुआ ग्राम में पुरातत्त्व विभाग द्वारा  की गई खुदाई ने ही पर्दा उठाया था।  भगवान बुद्ध, जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकार महावीर की जन्मस्थली वैशाली के बारे में इतिहास में पढ़ी न जाने कितनी बातें घूम रही थीं।  कभी ७७०७ प्रासाद थे यहाँ।  अलंबुश-इक्ष्वाक्‌ के तनय विशाल की बसाई वैशाली में ७७०७ कूटाकार, इतने ही उद्यान और इतने ही तालाब थे।  प्रत्येक कुल का प्रतिनिधि ‘राजा’ कहलाता।  स्वतंत्र थे यहाँ के सारे ही जनपद।  अनुपम थी वैशाली की रमणीयता।  बुद्ध ने हिमालयपर्यंत फैले यहाँ के प्राकृतिक वैभव  को देखकर ही कभी अपने परम शिष्य आनंद से कहा था-‘आनंद, रमणीय है वैशाली, रमणीय है उसका उदयन चैत्य, उसका वह गोतमक चैत्य रमणीय है, सप्ताम्रक चैत्य रमणीय है, रमणीय है, आनंद उसके बहुपुत्तक चैत्य, सारंदद चैत्य। अभिराम है, रमणीय है आनंद वैशाली।’

दूर पेड़ों से घिरा एक सरोवर साफ़ दिखाई देने लगा है।  मुझे लगा, यही वैशाली की पवित्र पुष्करिणी है। वही पुष्करिणी, जिसका उल्लेख राहुल सांकृत्यायन ने अपने उपन्यास ‘सिंह सेनापति’ में किया है।  पुष्करिणी में सर्व साधारण का स्नान मना है।  गुण संस्था जिसे अपना सदस्य चुनती है, वही उसमें नहाता है।  सारे लिच्छवि आर्य हैं और क्षत्रिय हैं। सबको उसमें नहाने का अधिकार नहीं है। गण सदस्य भी जीवन में सिर्फ़ एक बार वहाँ नहाते हैं।  प्रत्येक परिवार से एक सदस्य गण के लिए चुना जाता तो भी संस्था बहुत बडी हो जाती।  इसलिए ९९९ की संख्या नियत कर दी गई थी।  पुनीत पुष्करिणी के जल से अभिशिक्त हो लिच्छवियों का अराजक गणतांत्रिक संथागार में बैठता।  लिच्छवी राजाओं से भिन्न जन कभी उस पुष्करिणी के जल से आचमन नहीं  कर सकते थे।  और अब, उसी पुष्करिणी में गंदगी का साम्राज्य हो रहा है।  पानी में स्थान-स्थान पर काई जम गई है।  किनारों और जल के अंदर झाड़-झंखाड उग आए हैं।  दुर्बल काया का बुज़ुर्ग-सा व्यक्ति तालाब से नहाकर अपनी साइकिल को भी अब उसी में नहला रहा है।  


[‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के सितम्बर-अक्टूबर २०१० अंक के राजेश कुमार व्यास द्वारा यात्रावृत्तात-विश्व के पहले बड़े लोकतंत्र में, का अंश साभार प्रस्तुत]

4 टिप्‍पणियां:

  1. दिलचस्प जानकारी ।
    समय के साथ बदलती तस्वीर दुखद है ।

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  2. लोकतन्त्र, तभी लगता है कि हमारे डीएनए में है।

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  3. कुछ लोग सुधरना ही नहीं चाहते। काई और कीचड़ ही उन्हें रास आता है।

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